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Tuesday, October 28, 2025

Some bad effects of Tantric practice

Some bad effects of Tantric practice

 तांत्रिक प्रयोग के कुछ बुरे प्रभाव

1.लगातार बीमार रहना। सारे इलाज नाकाम।
2.लगातार चिंता, आत्महत्या की प्रवृत्ति, या घर और परिवार से दूर जाने की इच्छा।
3.परिवार के किसी सदस्य का लगातार बीमार रहना।
4.मोटापे के कारण अत्यधिक कमजोरी और चिड़चिड़ापन।
5.बिना किसी शारीरिक कमी या बिना किसी चिकित्सीय कारण के बांझपन।
6.बच्चों का बार-बार गर्भपात या मृत्यु होना।
7.परिवार में अचानक अप्राकृतिक मृत्यु होना।
8.मकान, फैक्ट्री या किसी अन्य भवन के निर्माण में समस्याएँ।
9.कठिन परिश्रम के बावजूद धन की कमी।
10.जीने की कोई इच्छा नहीं। घुटन महसूस होती है। ज़िंदगी बेकार लगती है। ज़िंदगी में आगे बढ़ने की कोई इच्छा नहीं।
11।भाइयों या परिवार के सदस्यों के बीच बिना किसी कारण के अचानक झगड़ा होना।
12.उद्देश्यों की प्राप्ति असंभव प्रतीत होती है।
13.संपत्ति के व्यापार में हानि।
14.बच्चों का अस्वस्थ्य एवं अल्पविकास।
15.शत्रुओं के भय और उनकी बुरी योजनाओं के कारण शांति की हानि।
16.पति-पत्नी या परिवार के बीच मतभेद।
17.महानतम प्रयासों का परिणाम विफलता है।
18.सरकारी सहायता, पदोन्नति और वांछित स्थानांतरण का अभाव।
19.कड़ी मेहनत के बावजूद गरीबी।

Thursday, September 29, 2022

gunaahon ka devata गुनाहों का देवता

  अगर पुराने जमाने की नगर-देवता की और ग्राम-देवता की कल्पनाएँ आज भी मान्य होतीं तो मैं कहता कि इलाहाबाद का नगर-देवता जरूर कोई रोमैण्टिक कलाकार है। ऐसा लगता है कि इस शहर की बनावट, गठन, जिन्दगी और रहन-सहन में कोई बँधे-बँधाये नियम नहीं, कहीं कोई कसाव नहीं, हर जगह एक स्वच्छन्द खुलाव, एक बिखरी हुई-सी अनियमितता। बनारस की गलियों से भी पतली गलियाँ और लखनऊ की सड़कों से चौड़ी सड़कें। यार्कशायर और ब्राइटन के उपनगरों का मुकाबला करने वाले सिविल लाइन्स और दलदलों की गन्दगी को मात करने वाले मुहल्ले। मौसम में भी कहीं कोई सम नहीं, कोई सन्तुलन नहीं। सुबहें मलयजी, दोपहरें अंगारी, तो शामें रेशमी ! धरती ऐसी कि सहारा के रेगिस्तान की तरह बालू भी मिले, मालवा की तरह हरे-भरे खेर भी मिलें और ऊसर और परती की भी कमी नहीं। सचमुच लगता है कि प्रयाग का नगर-देवता स्वर्ग-कुंजों से निर्वासित कोई मनमौजी कलाकार है जिसके सृजन में हर रंग के डोरे हैं।


 


और जाहे जो हो, नगर इधर क्वार, कार्तिक तथा उधर वसन्त के बाद और होली के बीच के मौसम में इलाहाबाद का वातावरण नैस्टर्शियम और पैंजी के फूलों से भी ज्यादा खूबसूरत और आम के बौरों की खुशबू से भी ज्यादा महकदार होता है। सिविल लाइन्स हो या अल्फ्रेड पार्क, गंगातट हो या खुसरूबाग, लगता है कि हवा एक नटखट दोशीजा की तरह कलियों के आँचल और लहरों के मिजाज से छेड़खानी करती चलती है। और अगर आप सर्दी से बहुत नहीं डरते तो आप जरा एक ओवरकोट डालकर सुबह-सुबह घूमने निकल जायें तो इन खुली हुई जगहों की फिजाँ इठलाकर आपको अपने जादू में बाँध लेगी। खास तौर से पौ फटने से पहले तो आपको एक बिलकुल नयी अनुभूति होगी। वसन्त के नये-नये मौसमी फूलों के रंग से मुकाबला करने वाली हलकी सुनहली, बाल-सूर्य की अँगुलियाँ सुबह की राजकुमारी के गुलाबी वक्ष पर बिखरे हुए भौंराले गेसुओ को धीरे-धीरे हटाती जाती हैं और क्षितिज पर सुनहली तरूणाई बिखर पड़ती है। 


 


एक ऐसी ही खुशनुमा सुबह थी, और जिसकी कहानी मैं कहने जा रहा हूँ, वह सुबह से भी ज्यादा मासूम युवक, प्रभाती गाकर फूलों को जगाने वाले देवदूत की तरह अल्फ्रेड पार्क के लॉन फूलों की सरजमीं के किनारे-किनारे घूम रहा था। कत्थई स्वीटपी के रंग का पश्मीने का लम्बा कोट, जिसका एक कालर उठा हुआ था और दूसरे कालर में सरो की एक पत्ती बटन होल में लगी हुई थी, सफेद मक्खन जीन का पतला पैण्ट और पैरों में सफेद जरी की पेशावरी सैण्डिलें, भरा हुआ गोरा चेहरा और ऊँचे चमकते हुए माथे पर झूलती हुई एक रूखी भूरी लटा। चलते-चलते उसने एक रंग-बिरंगा गुच्छा इकट्ठा कर लिया था और रह-रह कर वह उसे सूंघ लेता था। 


 


पूरब के आसमान की गुलाबी पंखुरियाँ बिखरने लगी थीं और सुनहले पराग की एक बौछार सुबह के ताजे फूलों पर बिछ रही थी। ‘‘अरे सुबह हो गई !’’ उसने चौंककर कहा और पास की एक बेंच पर बैठ गया। सामने से एक माली आ रहा था। ‘‘क्यों जी, लाइब्रेरी खुल गयी ?’’ ‘‘अभी नहीं बाबूजी !’’ उसने जवाब दिया। वह फिर सन्तोष से बैठ गया और फूलों की पाँखुरियाँ नोचकर नीचे फेंकने लगा। जमीन पर बिछाने वाली सोने की चादर परतों पर परतें बिछाती जा रही थीं और पेड़ों की छायाओं का रंग गहराने लगा था। उसकी बेंच के नीचे फूलों की चुनी हुई पत्तियाँ बिखरी थीं और अब उसके पास सिर्फ एक फूल बाकी रह गया था। हलके फालसई रंग के उस फूल पर गहरे बैंजनी डोरे थे। 


‘‘हलो कपूर !’’ सहसा किसी ने पीछे से कन्धे पर हाथ रखकर कहा-‘‘यहाँ क्या झक मार रहे हो सुबह-सुबह ?’’


उसने मुड़कर पीछे देखा-‘‘आओ, ठाकुर साहब ! आओ बैठो यार, लाइब्रेरी खुलने का इन्तजार कर रहा हूँ।’’


‘‘क्यों, युनिवर्सिटी लाइब्रेरी चाट डाली, अब इसे तो शरीफ लोगों के लिए छोड़ दो !’’


 


‘‘हाँ, हाँ, शरीफ लोगों ही के लिए छोड़ रहा हूँ; डॉक्टर शुक्ला की लड़की है न, वह इसकी मेम्बर बनना चाहती थी तो मुझे आना पड़ा, उसी का इन्तजार भी कर रहा हूँ।’’


‘‘डॉक्टर शुक्ला तो पॉलिटिक्स डिपार्टमेण्ट में हैं ?’’


‘‘नहीं, गवर्नमेण्ट साइकोलॉजिकल ब्यूरो में।’’


‘‘और तुम पॉलिटिक्स में रिसर्च कर रहे हो ?’’


‘‘नहीं इकनॉमिक्स में !’’ 


 


‘‘बहुत अच्छे ! तो उनकी लड़की को सदस्य बनवाने आये हो ?’’ कुछ अजब स्वर में ठाकुर ने कहा। 


‘‘छिः !’’ कपूर ने हँसते हुए, कुछ अपने को बचाते हुए कहा- ‘‘यार, तुम जानते हो मेरा कितना घरेलू सम्बन्ध है। जब से मैं प्रयाग में हूँ, उन्हीं के सहारे हूँ और आजकल तो उन्हीं के यहाँ पढ़ता-लिखता भी हूँ...।’’


ठाकुर साहब हँस पड़े- ‘‘अरे भाई, मैं डॉक्टर शुक्ला को जानता नहीं क्या ? उनका-सा भला आदमी मिलना मुश्किल है। तुम सफाई व्यर्थ में दे रहे हो’’


 


ठाकुर साहब युनिवर्सिटी के उन विद्यार्थियो में से थे जो बरायनाम विद्यार्थी होते हैं और कब तक वे युनिवर्सिटी को सुशोभित करते रहेंगे, इसका कोई निश्चित नहीं। एक अच्छे-खासे रूपए वाले व्यक्ति थे और घर के ताल्लुकेदार। हँसमुख, फब्तियाँ कसने में मजा लेने वाले, मगर दिल से साफ, निगाह के सच्चे। बोले- 


‘‘एक बात तो मैं स्वीकार करता हूँ कि तुम्हारी पढ़ायी का सारा श्रेय डॉ. शुक्ला को है ! तुम्हारे घर वाले तो कुछ खर्चा भेजते नहीं ?’’


 


‘‘नहीं, उनसे अलग ही होकर आया था। समझ लो कि इन्होंने किसी-न-किसी बहाने मदद की है।’’ 


‘‘अच्छा, आओ, तब तक लोटस-पोण्ड (कमल-सरोवर) तक ही घूम लें । फिर लाइब्रेरी भी खुल जाएगी !’’ 


दोनों उठकर एक कृमिक कमल-सरोवर की ओर चल दिये जो पास ही में बना हुआ था। सीढ़ियाँ चढ़कर ही उन्होंने देखा कि एक सज्जन किनारे बैठे कमलों की ओर एकटक देखते हुए ध्यान में तल्लीन हैं। दुबले-पतले छिपकली से, बालों की एक लट माथे पर झूलती हुई-


‘‘कोई प्रेमी हैं, या कोई फिलासफर हैं, देखा ठाकुर ?’’


‘‘नहीं यार, दोनों से निकृष्ट कोटि के जीव हैं-ये कवि हैं। मैं इन्हें जानता हूँ। ये रवीन्द्र बिसरिया हैं। एम.ए. में पढ़ता है। आओ, मिलायें तुम्हें !’’


ठाकुर साहब ने एक बड़ा-घास का तिनका तोड़कर पीछे से चुपके-से जाकर उनकी गरदन गुदगुदायी। बिसरिया चौक उठा-पीछे मुड़कर देखा और बिगड़ गया-‘‘यह क्या बदतमीजी है, ठाकुर साहब !’’ मैं कितने गम्भीर विचारों में डूबा था।’’ और सहसा बड़े विचित्र स्वर में आँखे बन्द कर बिसरिया बोला, ‘‘आह ! कैसा मनोरम प्रभात है ! मेरी आत्मा में घोर अनुभूति हो रही थी...’’


 


कपूर बिसरिया की मुद्रा पर ठाकुर साहब की ओर देखकर मुसकराया और इशारे में बोला- ‘‘है यार शगल की चीज। छेड़ो जरा !’’ 


ठाकुर साहब ने तिनका फेंक दिया और बोले-‘‘माफ करना, भाई बिसरिया ! बात यह है कि हम लोग कवि तो हैं नहीं, इसलिए समझ नहीं पाते। क्या सोच रहे थे तुम ?’’


बिसरिया ने आँखें खोलीं और एक गहरी साँस लेकर बोला- ‘‘मैं सोच रहा था कि आखिर प्रेम क्या होता है, क्यों होता है ? कविता क्यों लिखी जाती है ? फिर कविता के संग्रह उतने क्यों नहीं बिकते जितने उपन्यास या कहानी-संग्रह ?’’


‘‘बात तो गम्भीर है।’’ कपूर बोला-‘‘जहाँ तक मैंने समझा और पढ़ा है- प्रेम एक तरह की बीमारी होती है मानसिक बीमारी, जो मौसम बदलने के दिनों में होती है, मसलन क्वार-कार्तिक या फागुन-चैत। उसका सम्बन्ध रीढ़ की हड्डी से होता है और कविता एक तरह का सन्निपात होता है। मेरा मतलब आप समझ रहे हैं, मि. सिबरिया ?’’


‘‘सिबरिया नहीं बिसरिया ?’’ ठाकुर साहब ने टोका। बिसरिया ने कुछ उजलत, कुछ परेशानी और कुछ गुस्से से उनकी ओर देखा और बोला-‘‘क्षमा कीजिएगा, आप या तो फ्रायडवादी हैं, या प्रगतिवादी और आपके विचार सर्वदा विदेशी हैं। मैं इस तरह के विचारों से घृणा करता हूँ...।’’


 


कपूर कुछ जवाब देने ही वाला था कि ठाकुर साहब बोले-‘‘अरे भाई, बेकार उलझ गए तुम लोग, पहले परिचय तो कर लो आपस में। ये हैं श्री चन्द्रकुमार कपूर, विश्वविद्यालय में रिसर्च कर रहे हैं और आप हैं श्री रवीन्द्र बिसरिया, इस वर्ष एम.ए. में बैठ रहे हैं। बहुत अच्छे कवि हैं।’’


कपूर ने हाथ मिलाया और फिर गम्भीरता से बोला-‘‘क्यों साहब, आपको दुनिया में और कोई काम नहीं रहा जो आप कविता करते हैं ?’’


बिसरिया ने ठाकुर साहब की ओर देखा और बोला-‘‘ठाकुर साहब, यह मेरा अपमान है; मैं इस तरह के सवालों का आदी नहीं हूँ।’’ और उठ खड़ा हुआ। 


‘‘अरे बैठो-बैठो !’’ ठाकुर साहब ने हाथ खींचकर बिठा लिया-‘‘देखो, कपूर का मतलब तुम समझे नहीं। उसका कहना यह है कि तुममें इतनी प्रतिभा है कि लोग तुम्हारी प्रतिभा का आदर करना नहीं जानते। इसलिए उन्होंने सहानुभूति में तुमसे कहा कि तुम और कोई काम क्यों नहीं करते। वरना कपूर साहब तुम्हारी कविता के बहुत शौकीन हैं। मुझसे बराबर तारीफ करते हैं।’’


 


बिसरिया पिघल गया और बोला-‘‘क्षमा कीजिएगा। मैंने गलत समझा, अब मेरा कविता-संग्रह छप रहा है , मैं आपको अवश्य भेंट करूँगा।’’ और फिर बिसरिया ठाकुर साहब की ओर मुड़कर बोला- ‘‘अब लोग मेरी कविताओं की इतनी माँग करते है कि मैं परेशान हो गया हूँ। अभी कल ‘त्रिवेणी’ के सम्पादक मिले। कहने लगे अपना चित्र दे दो। मैंने कहा कोई चित्र नहीं है तो पीछे पड़ गये। आखिरकार मैंने आइडेण्टिटी कार्ड उठाकर दे दिया !’’


‘‘वाह !’’ कपूर बोला-‘‘मान गये आपको हम ! तो आप राष्ट्रीय कविताएँ लिखते हैं या प्रेम की ?’’


‘‘जब जैसा अवसर हो !’’ ठाकुर साहब ने जड़ दिया- ‘‘वैसे तो यह वारफ्रण्ट का कवि-सम्मेलन, शराबबन्दी कॉन्फ्रेन्स का कवि-सम्मेलन, शादी-ब्याह का कवि-सम्मेलन, साहित्य-सम्मेलन का कवि-सम्मेलन सभी जगह बुलाये जाते हैं। बड़ा यश है इनका !’’ 


बिसरिया ने प्रशंसा से मुग्ध होकर देखा, मगर फिर एक गर्व का भाव मुँह पर लाकर गम्भीर हो गया।


 


कपूर थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला-‘‘तो कुछ हम लोगों को भी सुनाइए न !’’ ‘‘अभी तो मूड नहीं है।’’ बिसरिया बोला। 


ठाकुर साहब बिसरिया को पिछले पाँच सालों से जानते थे, वे अच्छी तरह जानते थे, कि बिसरिया किस समय और कैसे कविता सुनाता है। अतः बोले-‘‘ऐसे नहीं कपूर, आज शाम को आओ। जरा गंगाजी चलें, कुछ बोटिंग रहे, कुछ खाना-पीना रहे तब कविता भी सुनना !’’


कपूर को बोटिंग का बेहद शौक था। फौरन राजी हो गया और शाम का विस्तृत कार्यक्रम बन गया। 


इतने में एक कार उधर से लाइब्रेरी की ओर गुजरी। कपूर ने देखा और बोला-‘‘अच्छा, ठाकुर साहब, मुझे तो इजाजत दीजिए। अब चलूँ लाइब्रेरी में। वो लोग आ गये। आप कहाँ चल रहे हैं ?’’ 


‘‘मैं जरा जिमखाने की ओर जा रहा हूँ। अच्छा भाई, तो शाम को पक्की रही।’’


‘‘बिलकुल पक्की !’’ कपूर बोला और चल दिया। 


लाइब्रेरी के पोर्टिको में कार रूकी थी और उसके अन्दर ही डॉक्टर साहब की लड़की बैठी थी। 


‘‘क्यों सुधा, अन्दर क्यों बैठी हो ?’’


‘‘तुम्हें ही देख रही थी, चन्दर।’’ और वह उतर आयी। दुबली-पतली, नाटी-सी, साधारण-सी लड़की बहुत सुन्दर नहीं, केवल सुन्दर, लेकिन बातचीत में बहुत दुलारी। 


 


‘‘चलो, अन्दर चलो।’’चन्दर ने कहा। 


वह आगे बढ़ी, फिर ठिठक गयी और बोली-‘‘चन्दर, एक आदमी को चार किताबें मिलती हैं ?’’ 


‘‘हाँ ! क्यों ?’’ 


‘‘तो...तो..’’ उसने बड़े भोलेपन से मुसकराते हुए कहा- ‘‘तो तुम अपने नाम से मेंम्बर बन जाओ और दो किताबें हमें दे दिया करना बस, ज्यादा का हम क्या करेंगे ?’’


‘‘नहीं !’’ चन्दर हँसा-‘‘तुम्हारा तो दिमाग खराब है। खुद क्यों नहीं बनतीं मेम्बर ?’’ 


‘‘नहीं, हमें शरम लगती है, तुम बन जाओ मेम्बर हमारी जगह पर।’’


 


‘‘पगली कहीं की !’’ चन्दर ने उसका कन्धा पकड़कर आगे ले चलते हुए कहा- ‘‘वाह रे शरम ! अभी कल ब्याह होगा तो कहना, हमारी जगह तुम बैठ जाओ चन्दर ! कॉलेज में पहुँच गयी लड़की; अभी शरम नहीं छूटी इसकी ! चल अन्दर !’’ 


और वह हिचकती, ठिठकती, झेंपती और मुड़-मुड़कर चन्दर की ओर रूठी हुई निगाहों से देखती हुई अन्दर चली गयी। 


थोड़ी देर बाद सुधा चार किताबें लादे हुए निकली। कपूर ने कहा-‘‘लाओ, मैं ले लूँ !’’ तो बाँस की पतली टहनी की तरह लहराकर बोली-‘‘सदस्य मैं हूँ तुम्हें क्यों दूँ किताबें ?’’ और जाकर कार के अन्दर किताबें पटक दीं। फिर बोली-‘‘आओ, बैठो, चन्दर !’’ 


 


‘‘मैं अब घर जाऊँगा।’’


‘‘ऊँहूँ यह देखो !’’ और उसने भीतर से कागजों का एक बण्डल निकाला और बोली-‘‘देखो, यह पापा ने तुम्हारे लिए दिया है। लखनऊ में कॉन्फ्रेन्स है न। वहीं पढ़ने के लिए यह निबन्ध लिखा है उन्होंने। शाम तक यह टाइप हो जाना चाहिए। जहाँ संख्याएँ हैं वहाँ खुद आपको बैठकर बोलना होगा। और पापा सुबह से ही कहीं गये हैं। समझे जनाब !’’ उसने बिल्कुल अल्हड़ बच्चों की तरह गरदन हिलाकर शोख स्वरों में कहा। 


कपूर ने बण्डल ले लया और कुछ सोचता हुआ बोला-‘‘लेकिन डॉक्टर साहब का हस्तलेख, इतने पृष्ठ, शाम तक कौन टाइप कर देगा ?’’ 


 


‘‘इसका भी इन्तजाम है’’ –और उसने ब्लाउज में से एक पत्र निकालकर चन्दर के हाथ में देती हुई बोली- ‘‘यह कोई पापा की पुरानी ईसाई छात्रा है। टाइपिस्ट। इसके घर में तुम्हें पहुँचाये देती हूँ। मुकर्जी रोड पर रहती है यह। उसी के यहाँ टाइप करवा लेना और यह खत उसे दे देना।’’


‘‘लेकिन अभी मैंने चाय नहीं पी।’’


‘‘समझ गये, अब तुम सोच रहे होंगे कि इसी बहाने सुधा तुम्हें चाय भी पिला देगी। सो मेरा काम नहीं है जो मैं चाय पिलाऊँ ? पापा का काम है यह ! चलो, आओ !’’


चन्दर जाकर भीतर बैठ गया और किताबें उठाकर देखने लगा- ‘‘अरे, चारों कविता की किताबें उठा लायी- समझ में आयेंगी तुम्हारे ? क्यों, सुधा ‍?’’ 


 


‘‘नहीं !’’ चिढ़ाते हुए सुधा बोली-‘‘तुम कहो, तुम्हें समझा दें। इकनॉमिक्स पढ़ने वाले क्या जानें साहित्य ?’’


‘‘अरे, मुकर्जी रोड पर ले चलो, ड्राइवर !’’ चन्दर बोला-‘‘इधर कहाँ चल रहे हो ?’’ 


‘‘नहीं, पहले घर चलो !’’ सुधा बोली-‘‘चाय पी लो तब जाना !’’ 


‘‘नहीं मैं चाय नहीं पिऊँगा।’’ चन्दर बोला। 


‘‘चाय नहीं पिऊँगा, वाह ! वाह ! सुधा की हँसी में दूधिया बचपन छलक उठा -‘‘मुँह तो सूखकर गोभी हो रहा है, चाय नहीं पीयेंगे।’’


बँगला आया तो सुधा ने महराजिन से चाय बनाने के लिए कहा और चन्दर को स्टडी रूम में बिठाकर प्याले निकालने के लिए चल दी। 


 


वैसे तो यह घर, परिवार चन्द्र कपूर का अपना हो चुका था; जब से वह अपनी माँ से झगड़कर प्रयाग भाग आया था पढ़ने के लिए, यहाँ आकर बी.ए. में भरती हुआ था और कम खर्च के खयाल से चौक में एक कमरा लेकर रहता था, तभी डॉक्टर शुक्ला उसके सीनियर टीचर थे और उसकी परिस्थितियों से अवगत थे। चन्दर की अंग्रेजी बहुत ही अच्छी थी और डॉक्टर शुक्ला उससे छोटे-छोटे लेख लिखवाकर पत्रिकाओं में भिजवाते थे। उन्होंने कई पत्रों के आर्थिक स्तम्भ का काम चन्दर को दिलवा दिया था और उसके बाद चन्दर के लिए डॉ. शुक्ला का स्थान अपने संरक्षक और पिता से भी ज्यादा हो गया था। चन्दर शरमीला लड़का था, बेहद शरमीला, कभी उसने युनिवर्सिटी के वजीफे के लिए भी कोशिश न की थी, लेकिन जब बी.ए. में वह सारी युनिवर्सि़टी में सर्वप्रथम आया तब स्वयं इक्नॉमिक्स विभाग ने उसे युनिवर्सिटी के आर्थिक प्रकाशनों का वैतनिक संपादक बना दिया था। एम.ए. में भी वह सर्वप्रथम आया और उसके बाद उसने रिसर्च ले ली। उसके बाद डॉक्टर शुक्ला युनिवर्सिटी से हटकर ब्यूरो में चले गये थे। अगर सच पूछा जाए तो उसके सारे कैरियर का श्रेय डॉ. शुक्ला को था जिन्होंने हमेशा उसकी हिम्मत बढ़ायी और उसको अपने लड़के से बढ़कर माना। अपनी सारी मदद के बावजूद डॉ. शुक्ला ने उससे इतना अपनापन बनाए रखा कि कैसे धीरे-धीरे चन्दर सारी गैरियत खो बैठा; यह उसे खुद नहीं मालूम। यह बँगला, इसके कमरे, इसके लॉन, इसकी किताबें, इसके निवासी, सभी कुछ जैसे उसके अपने थे और सभी का उससे जाने कितने जन्मों का सम्बन्ध था। 


 


और यह नन्ही दुबली-पतली रंगीन चन्द्रकिरन-सी सुधा। जब आज से वर्षों पहले यह सातवाँ पास करके अपनी बुआ के पास से यहाँ आयी थी तब से लेकर आज तक कैसे वह भी चन्दर की अपनी होती गयी थी, इसे चन्दर खुद नहीं जानता था। जब वह आयी थी तब वह बहुत शरमीली थी, बहुत भोली थी, आठवें में पढ़ने के बावजूद वह खाना खाते वक्त रोती थी, मचलती थी तो अपनी कॉपी फाड़ डालती थी और जब तक डॉक्टर साहब उसे गोदी में बिठाकर नहीं मनाते थे, वह स्कूल नहीं जाती थी। तीन बरस की अवस्था में ही उसकी माँ चल बसी थी और दस साल तक वह अपनी बुआ के पास एक गाँव में रही थी। अब तेरह वर्ष की होने पर गाँव वालों ने उसकी शादी पर जोर देना और शादी न होने पर गाँव की औरतों ने हाथ नचाना और मुँह मटकाना शुरू किया तो डॉक्टर साहब ने उसे इलाहाबाद बुलाकर आठवें में भरती करा दिया। जब वह आयी थी तो आधी जंगली थी, तरकारी में घी कम होने पर वह महराजिन का चौका जूठा कर देती थी और रात में फूल तोड़कर न लाने पर अकसर उसने माली को दाँत भी काट खाया था। चन्दर से जरूर वह बेहद डरती थी, पर न जाने क्यों चन्दर भी उससे नहीं बोलता था। 


 


लेकिन जब दो साल तक उसके ये उपद्रव जारी रहे और अकसर डॉक्टर साहब गुस्से के मारे उसे साथ न खिलाते थे और न उससे बोलते थे, तो वह रो-रोकर और सिर पटक-पटककर अपनी जान आधी कर देती थी। तब अकसर चन्दर ने पिता और पुत्री का समझौता कराया था, अकसर सुधा को डाँटा था, समझाया था, और सुधा, घर-भर से अल्हड़ पुरवाई और विद्रोही झोंके की तरह तोड़-फोड़ मचाती रहने वाली सुधा, चन्दर के आँख के इशारे पर सुबह की नसीम की तरह शान्त हो जाती थी। कब और क्यों उसने चन्दर के इशारों का यह मौन अनुशासन स्वीकार कर लिया था। यह उसे खुद नहीं मालूम था, और यह सभी कुछ इतने स्वाभाविक ढंग से, इतना अपने-आप होता गया कि दोनों में से कोई भी इस प्रक्रिया से वाकिफ नहीं था, कोई भी इसके प्रति जागरूक न था, दोनों का एक-दूसरे के प्रति अधिकार और आकर्षण इतना स्वाभाविक था जैसे शहद की पवित्रता या सुबह की रोशनी। 


 


और मजा तो यह था कि चन्दर की शक्ल देखकर छिप जाने वाली सुधा इतनी ढीठ हो गई थी कि उसका सारा विद्रोह, सारी झुँझलाहट, मिजाज की सारी तेजी, सारा तीखापन और सारा लड़ाई-झगड़ा, सभी की तरफ से हटकर चन्दर की ओर केन्द्रित हो गया था। वह विद्रोहिनी अब शान्त हो गयी थी। इतनी शान्त, इतनी सुशील, इतनी विनम्र, इतनी मिष्टभाषिणी कि सभी को देखकर ताज्जुब होता था, लेकिन चन्दर को देखकर जैसे उसका बचपन फिर लौट आता था और जब तक वह चन्दर को खिजाकर, छेड़कर लड़ नहीं लेती थी उसे चैन नहीं पड़ता था। अकसर दोनों में अनबोला रहता था, लेकिन जब दो दिन तक दोनों मुँह फुलाए रहते थे और डॉक्टर साहब के लौटने पर सुधा उत्साह से उनको ब्यूरो का हाल नहीं पूछती थी और खाते वक्त दुलार नहीं दिखाती थी तो डॉक्टर साहब फौरन पूछते थे- ‘‘क्या, चन्दर से लड़ाई हो गयी क्या ?’’ फिर वह मुँह फुलाकर शिकायत करती थी और शिकायतें भी क्या-क्या होती थीं, चन्दर ने उसकी हेड मिस्ट्रेस का नाम एलीफैण्टा (श्रीमती हथिनी) रखा है, या चन्दर ने उसको डिबेट के भाषण के प्वाइण्ट नहीं बताये, या चन्दर कहता है कि सुधा की सखियाँ कोयला बेचतीं हैं, और जब डॉक्टर साहब कहते हैं कि वह चन्दर को डाँट देगें तो वह खुशी से फूल उठती और चन्दर के आने पर आँखें नचाती हुई चिढ़ाती थी, ‘‘कहो, कैसी डाँट पड़ी ?’’


 


वैसे सुधा अपने घर की पुरखिन थी। किस मौसम में कौन-सी तरकारी पापा को माफिक पड़ती है, बाजार में चीजों का क्या भाव है, नौकर चोरी तो नहीं करता, पापा कितनी सोसायटियों के मेम्बर हैं, चन्दर के इक्नॉमिक्स के कोर्स में क्या है, यह सभी उसे मालूम था। मोटर या बिजली बिगड़ जाने पर वह थोड़ी-बहुत इंजीनियरिंग भी कर लेती थी और मातृत्व का अंश तो उसमें इतना था कि हर नौकर और नौकरानी उससे अपना सुख-दुःख कह देते थे। पढ़ाई के साथ-साथ घर का सारा काम-काज करते हुए उसका स्वास्थ्य भी कुछ बिगड़ गया था और अपनी उम्र के हिसाब से कुछ अधिक शान्त, संयत, गम्भीर और बुजुर्ग थी, मगर अपने पापा और चन्दर, इन दोनों के सामने हमेशा उसका बचपन इठलाने लगता था। दोनों के सामने उसका हृदय उन्मुक्त था और स्नेह बाधाहीन। 


 


लेकिन, हाँ, एक बात थी। उसे जितना स्नेह और स्नेह-भरी फटकारें और स्वास्थ्य के प्रति चिन्ता अपने पापा से मिलती थी, वह सब बड़े निःस्वार्थ भाव से वह चन्दर को दे डालती थी। खाने-पीने की जितनी परवाह उसके पापा उसकी रखते थे, न खाने पर या कम खाने पर उसे जितने दुलार से फटकारते थे, उतना ही खयाल वह चन्दर का रखती थी और स्वास्थ्य के लिए जो उपदेश उसे पापा से मिलते थे उसे और भी स्नेह में पागकर वह चन्दर को दे डालती थी। चन्दर कै बजे खाना खाता है, यहाँ से जाकर घर पर कितनी देर पढ़ता है, रात को सोते वक्त दूध पीता है या नहीं, इन सबका लेखा-जोखा उसे सुधा को देना पड़ता, और जब कभी उसके खाने-पीने में कोई कमी रह जाती तो उसे सुधा की डाँट खानी ही पड़ती थी। पापा के लिए सुधा अभी बच्ची थी; और स्वास्थ्य के मामले में सुधा के लिए चन्दर अभी बच्चा था। और कभी-कभी तो सुधा की स्वास्थ्य-चिन्ता इतनी ज्यादा हो जाती थी कि चन्दर बेचारा जो खुद तन्दुरूस्त था, घबरा उठता था। एक बार सुधा ने कमाल कर दिया। उसकी तबीयत खराब हुई और डॉक्टर ने उसे लड़कियों का एक टॉनिक पीने के लिए बताया। इम्तहान में जब चन्दर कुछ दुबला-सा हो गया तो सुधा अपनी बची हुई दवा ले आयी। और लगी चन्दर से जिद करने कि ‘‘पियो इसे !’’ जब चन्दर ने किसी अखबार में उसका विज्ञापन दिखाकर बताया कि वह लड़कियों के लिए है तब कहीं जाकर उसकी जान बची। 


 


इसीलिए जब आज सुधा ने चाय के लिए कहा तो उसकी रूह काँप गयी क्योंकि जब कभी सुधा चाय बनाती थी तो प्याले के मुँह तक दूध भरकर उसमें दो तीन चम्मच चाय का पानी डाल देती थी और अगर उसने ज्यादा स्ट्रांग चाय की माँग की तो उसे खालिस दूध पीना पड़ता था। और चाय के साथ फल और मेवा और खुदा जाने क्या-क्या, और उसके बाद सुधा का इसरार, न खाने पर सुधा का गुस्सा और उसके बाद की लम्बी-चौड़ी मनुहार; इस सबसे चन्दर बहुत घबराता था। लेकिन जब सुधा उसे स्टडी रूम में बिठाकर जल्दी से चाय बना लायी तो उसे मजबूर होना पड़ा, और बैठे-बैठे निहायत बेबसी से उसने देखा कि सुधा ने प्याले में दूध डाला और उसके बाद थोड़ी-सी चाय डाल दी। उसके बाद अपने प्याले में चाय डालकर और दो चम्मच दूध डालकर आप ठाठ से पीने लगी, और बेतकल्लुफी से दूधिया चाय का प्याला चन्दर के सामने खिसकाकर बोली- ‘‘पीजिए, नाश्ता आ रहा है।’’ 


 


चन्दर ने प्याले को अपने सामने रखा और उसे चारों तरफ घुमाकर देखता रहा कि किस तरह से उसे चाय का अंश मिल सकता है। जब सभी ओर से प्याले में क्षीरसागर नजर आया तो उसने हारकर प्याला रख दिया। 


‘‘क्यों, पीते क्यों नहीं ?’’ सुधा ने अपना प्याला रख दिया। 


‘‘पीयें क्या ? कहीं चाय भी हो ?’’ 


तो और क्या खालिस चाय पीजिएगा ? दिमागी काम करने वालों को ऐसी ही चाय पीनी चाहिए।’’


‘‘तो अब मुझें सोचना पड़ेगा कि मैं चाय छोडूँ या रिसर्च। न ऐसी चाय मुझे पसन्द, न ऐसा दिमागी काम !’’ 

meaning of NIKHILESHWAR

 means of NIKHILESHWAR

meaning of NIKHILESHWAR



N-Neither Krishnagopal nor Kali's Mother

Or the impersonal Parabramha element

Either father or mother, not even own Brother

To no one this place ever could be lent

 

I-In this small altar of my heart

A radiant image which always shines

As if it has never been apart

And within my very soul it confines

 

K-Keeping me in constant awareness

Always gesturing with a subtle call

Walking along with a definite closeness

To hold me tight at every fall

 

H-Helping to lift me from unrest

Brimming my inner being with knowledge

Waiting patiently as I pass through each test

In His divine transcendental college

 

I-Inspiring with His words of wisdom

Encouraging with His flashing grace

He calls me to the “land of freedom”

By breaking the shackles of this human race

 

L-Love is His final answer

To all the miseries of this life

Deluding attachment’s vicious cancer

He teaches walking on the edge of the knife

 

Every passing moment for me counts

While He keeps me waiting till that day

Above the brows, in between the mounts

Shall emerge His deific thoughtless ray

 

S-Sweeping away all the clatter

Of this transient ephemeral plane

Beyond the realms of mind and matter

Over the rational human brain

 

H-Holding that ray, He will make me walk

With bated breath and careful steps

Absorbing me in some speechless talk

In the primordial sound’s tranquil depths

 

W-Walking upright on this mystic road

He shall lead me to my final rest

Taking me to His Celestial Abode

Concluding my arduous eternal quest

 

A-A fraction of His loving remembrance

Transports to that scene of Karmic Tantra

When under the sky, in Divine trance

I was invigorated by His Gurumantra

 

R-Reversing all worldly fears

With a fervent urge I had prayed

Drenched with my uncontrollable tears

“My Life is yours”, this I had said

 

NIKHILESHWAR is that Blissful name

In my heart’s altar to whom I pray out loud

"Oh Nikhileshwaranand! You are the same

Who will clear my ignorance’s cloud".

We Will be Together Always Poems




Always in my heart

you make me feel more loved

than I've ever felt

and happier than I've ever dreamed.

The love and understanding you have

is something I have searched for

my entire life.

Always in my happiest

and saddest moments,

you are my best friend and confidante.

I come to you for everything,

and you listen to me without judgment. Always, deep within my soul, I know we have a love like no other.

What we share is something others

only hope for and dream of,

but few ever experience.

Our love is magical beyond belief.

Always, without hesitation,

you give of yourself completely.

You have reached the very depths of my soul,

bringing out emotions I never knew I had

and unveiling an ability to love

I never thought it possible.

Always and forever

you will be my dream come true,

the one I have waited for all these years.

From now until the end of time,

I will love only you.

We will be together always.

Hirendra (2011)

Love doesn't grow, love doesn't sell

 प्रेम न बाड़ी उपजे ,प्रेम न हाट बिकाय ,

राजा परजा जेहि रूचे ,शीश धरै लै जाय।


प्रेम की खेती नहीं होती जैसे बीज बाडि में उपजाया जाता है। वहाँ तो बीज साधन होता है ,फसल साध्य हो जाती है। प्रेम तो अपने आप में साध्य है। उसका फसल की तरह लाभ नहीं कमाया जाता। 


अपने अहंकार को मारना ही प्रेम होता है। जो धन के बल पर अपने ऐश्वर्य का रूतबा दिखाकर दूसरों को फंसाता है वह प्रेम नहीं होता है। 


स्वयं का समर्पण अहंकार का त्याग ,स्वार्थ का सिर काटना ही प्रेम है।




प्रेम जीवन की परम समाधि है ... प्रेम ही शिखर है जीवन ऊर्जा का ...वही गौरीशंकर है जिसने प्रेम को जाना, उसने सब जान लिया.


जो प्रेम से वंचित रह गया, वह सभी कुछ से वंचित रह गया. प्रेम की भाषा को ठीक से समझ लेना जरूरी है ... प्रेम के शास्त्र को ठीक से समझ लेना जरूरी है , क्योंकि प्रेम ही तीर्थयात्रा है । 




प्रेम का अर्थ है, समर्पण की दशा, जहां दो मिटते हैं, एक बचता है ... जहां प्रेमी और प्रेम पात्र अपनी सीमाएं खो देते हैं, जहां उनकी दूरी समग्र रूपेण शून्य हो जाती है ।


यह उचित नहीं कि प्रेमी और प्रेम-पात्र करीब आ जाते है , क्योंकि निकट होना भी दूरी है । 




प्राय: हम मतभेदों में उलझ जाते हैं, क्योंकि स्वभाव से दूर हो गए हैं। 


प्रेम के नाम पर दूसरे व्यक्ति को इच्छानुसार चलाना चाहते हैं। यह स्वाभाविक है कि जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो चाहते हैं कि वे पूर्ण हों-त्रुटिरहित।




पहाड़ी के ऊपर से हम जमीन के गड्ढे नहीं देख सकते , 


हवाई जहाज से देखने पर पृथ्वी समतल नजर आती है। 


इसी प्रकार जब चेतना विस्तृत होती है, हमे दूसरों की त्रुटियां नहीं नजर आती हैं ,


परंतु यदि जमीन पर आते हैं तो हम हमेशा गड्ढों को देखते हैं। 


गड्ढों को भरना चाहते हैं तो हमे , उन्हें देखना ही होगा। हवा में रहकर हम घर नहीं बना सकते।




इसीलिए, जब हम किसी को प्रेम करते हैं , हमे अपने प्रेम पात्र के सभी दोष दिखाई देते हैं। 


परंतु दोष देखने से प्रेम नष्ट होता है। 


गड्ढों को भरने के बदले हम उनसे दूर भागते हैं। 


जब हम किसी से प्रेम करते हैं और उनमें दोष ही दोष देखते हैं ...जबकि होना ये चाहिए कि हम अपने प्रेम पात्र के साथ रहें और गड्ढे भरने में उसकी मदद करें। 


यही प्रज्ञा है।




प्रेम में ईर्ष्या हो तो प्रेम ही नहीं है; फिर प्रेम के नाम से कुछ और ही रोग चल रहा है। 


ईर्ष्या सूचक है प्रेम के अभाव की। 


ईर्ष्या का मिट जाना ही प्रेम का प्रमाण है। ईर्ष्या अँधेरे जैसी है; प्रेम प्रकाश जैसा है। इसको कसौटी समझना उत्तम होगा । 




जब तक ईर्ष्या रहे तब तक समझना कि प्रेम प्रेम नहीं ...


तब तक प्रेम के नाम से कोई और ही खेल चल रहा है ,


" अहंकार कोई नई यात्रा कर रहा है- प्रेम के नाम से दूसरे पर मालकियत करने का मजा, 


प्रेम के नाम से दूसरे का शोषण, 


दूसरे व्यक्ति का साधन की भांति उपयोग और 


दूसरे व्यक्ति का साधन की भाँति उपयोग जगत में सबसे बड़ी अनीति है ...क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति साध्य है, साधन नहीं। "




असली प्रेम उसी दिन उदय होता है जिस दिन हम इस सत्य को समझ पाते हैं कि सब तरफ परमात्मा विराजमान है। 


तब सेवा के अतिरिक्त कुछ बचता नहीं। 


प्रेम तो सेवा है, ईर्ष्या नहीं ... प्रेम तो समर्पण है, मालकियत नहीं।




सिर्फ ज्ञानीपुरुष ही जो केवल प्रेम कि जीवंत मूर्ति हैं, हमें प्रेम कि सही परिभाषा बता सकते हैं। सच्चा प्रेम वही है जो कभी बढ़ता या घटता नहीं है। 


मान देनेवाले के प्रति राग नहीं होता, न ही अपमान करनेवाले के प्रति द्वेष होता है। 


ऐसे प्रेम से दुनिया निर्दोष दिखाई देती है। 


यह प्रेम मनुष्य के रूप में भगवान का अनुभव करवाता है।




सच्चा प्रेम उसी व्यक्ति में हो सकता है जिसने अपने आत्मा को पूर्ण रूप से जान लिया है। प्रेम ही ईश्वर है और ईश्वर ही प्रेम है । 




प्रेम और वासना का भी निकट संबंध है , 


प्रेम और वासना के कुछ विशिष्ट लक्षण ... ये इतने विपरीत हैं फिर भी इतने समीप है , 




वासना तनाव लाती है, प्रेम विश्राम लाता है। 


वासना अंग पर केंद्रित होती है, प्रेम पूरे पर। 


वासना हिंसा लाती है, प्रेम बलिदान लाता है। 


वासना में हम झपटना / कब्जा करना चाहते हैं , प्रेम में तुम देना / समर्पण करना चाहते हैं । 


वासना कहती है, 'जो मैं चाहूं, वही तुम्हें मिले' ... प्रेम कहता है, 'जो तुम चाहो, वह तुम्हें मिले।'


वासना ज्वर और कुंठा लाती है ... प्रेम उत्कंठा और मीठा दर्द पैदा करता है। 


वासना जकड़ती है, विनाश करती है, प्रेम मुक्त करता है , हमे स्वतंत्र करता है। 


वासना में प्रयत्न है, प्रेम प्रयत्नहीन है। 


वासना में मांग है, प्रेम में अधिकार है। 


वासना हमे दुविधा देती है, उलझाती है ... प्रेम में हम केंद्रित और विस्तृत होते हो। 


वासना केवल नीरस और अंधकारमय है .... प्रेम के अनेक रूप और रंग हैं। 


काम-वासना में बाधा होने पर व्यक्ति क्रोधित होते हैं और घृणा करने लगते हैं। 


प्रेम में विनोद है, सरलता है और वासना में कपट है, छलयुक्ति है। 




आज संसार में फैली घृणा प्रेम के कारण नहीं, बल्कि वासना के कारण है। 


जीवन में हम कई भूमिकाएं निभाते हैं। यदि सभी भूमिकाएं आपस में मिल जाती हैं तो जीवन अंधकारमय हो जाता है, 


ज्ञानी प्रत्येक भूमिका को स्पष्टता से अलग-अलग निभाते हैं, जैसे कि इंद्रधनुष में सभी रंग आसपास में प्रदर्शित होकर इंद्रधनुष बनाते हैं।




!! ॐ नमः शिवाय !!


Siddha kunjika stotram सिद्ध कुंजिका स्तोत्र

 सिद्धि कुन्जिका स्तोत्रं :

सिद्धि कुन्जिका स्तोत्रं :-इस सिद्धि कुन्जिका स्त्रोत्र का नित्य पाठ करने से संपूर्ण

 श्री दुर्गा सप्तशती पाठ का फल मिलता है, इस मंत्र का नित्य पाठ करने से माँ भगवती जगदम्बा की क

ृपा बनी रहती है |
जय महाकाली माँ || कुन्जिका स्तोत्रं
शिव उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम्‌।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः भवेत्‌॥1॥
न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्‌।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम्‌॥2॥
कुंजिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्‌।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम्‌॥ 3॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्‌।
पाठमात्रेण संसिद्ध्‌येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम्‌ ॥4॥
अथ मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं सः
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा
॥ इति मंत्रः॥
नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिन ॥1॥
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिन ॥2॥
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे।
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका॥3॥
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी॥ 4॥
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिण ॥5॥
धां धीं धू धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥6॥
हुं हु हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः॥7॥
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा॥ 8॥
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिंकुरुष्व मे॥
इदंतु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति॥
यस्तु कुंजिकया देविहीनां सप्तशतीं पठेत्‌।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा॥
। इतिश्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वती
संवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम्‌


Monday, December 4, 2017

TRATAK SE DHYAN KI OR

TRATAK SE DHYAN KI OR




According to Yog Shastra, seven chakras are present in our body in form of bunch of nerves. It all depends on us whether we want to keep them in a dormant state or activate them and improve our lives by benefits arising out of this activation……This thing applies to each and every common person who does not have anything to do with sadhnas. But those who do sadhnas, they know that how much significant these chakras are in their spiritual lives.
Though each chakra has their own importance but Aagya Chakra situated in between two eyes has a lot to do with our spiritual lives. This is because it is located exactly in between our eyes where the third eye is present. How much concentration you have during sadhna or you are getting deviated, it all starts from here…..but if you remember, we learned a very abstruse fact in article related to mind that-
“If we have to save ourselves from illusion then we should abandon all the benefits and loss arising out of illusion”.
This quote simply means that the things which we do not know, it is useless to run after them…..but at the time of sadhana, it does not happen so…. At that time our mental condition is such that almighty has given the responsibility of entire universe on our shoulders and this state persists till the time we do not get up from sadhna. Such things happen, we all know. But we sparingly try to find out the reason behind this phenomenon. But in reality, it is subject to be pondered upon daily rather than occasionally. Sadhna or chanting of mantra means that the particular time belongs to us and our Isht. But if we are still thinking about worldly things at that time, then it is better not to sit on the aasan itself because just by chanting or by closing eyes, god does not get pleased…..and reason for such a state in sadhna is our mind….because
“Those who are knowledgeable, they know the fact that mind is neither a reliable friend nor an obedient servant. We can direct it but never control it”
……But those who are accomplished ascetic, their mind does not play such games with them because they are well aware of the fact that in reality, there is no such thing as mind….it is merely an illusion and if it is confirmed from scientific point of view then no doctor will tell you about a body part called “: mind”. Because such thing does not exist.
We have named a particular type of energy/vibration emitted from our brain as mind over which we do not have any control. Because energy remains uncontrolled until the time we do not understand its utilization. For controlling energy which is continuously created inside us, first of all we have to understand the roots from which this energy is created.
…….And our body contains three characteristics of Sat, Raj and tam in one proportion or other and our mind/orientation of thoughts and work-capability is always influenced by these three qualities. The time when there is a predominance of a particular quality, at that time, energy emitted from brain (which we have addressed as mind) will move towards that particular characteristic. It is because of natural law which says that energy always flows in direction of increasing density of Shakti (power). This is precisely the reason why we do not the same type of work every time…. Sometimes we are saintly and sometimes…..
In order to keep minds and thought stable in sadhna, thousands of ways have been told in Meditation and Yoga path. But above all those procedures, if there is any power/activity which takes us from darkness to light…..it is none but you because nobody knows you better then you yourself. It does not make any difference that which rules have been followed by you to concentrate your thoughts because all your activities have done become useless until the time your eyes do not become stable. And in order to stabilize the eyes, it is not necessary to tire yourself…..If anything is needed then it is to get rid of defects present inside you…
We all know that controlling mind or thoughts is very difficult task…..But we should also know the fact that consciousness never gets polluted; it is one of the vibrations of our soul which needs to be shown right direction. And we can show consciousness right direction only when we know the right path. In Hath Yoga, six different types of procedures have been told out of which Tratak is considered to be the best because it increases our spiritual peace along with the mental peace.
In our brain, thoughts come and go in form of vibrations but when we practice tratak then we recover 70% of energy lost by inflow and outflow of thoughts. This is because now we are trying to stabilize our eyes rather than catching our thoughts. If you will try then you will know that as compared to thoughts, stabilizing eye-balls is very easy and effective too. And it is activity experienced not only once but thousands of times that as your eye-balls get stabilized …..Your mind comes under your control. And we come to know about it by seeing dot present in the middle of Shakti Chakra getting stabilized.
Tratak can be done in two ways-
1)   External Tratak
2)   Internal Tratak
In external Tratak, you have to focus your attention on not present in the middle of Shakti chakra by which you learn the art of controlling your thoughts at the spiritual level and at the materialistic level, your eyes attain capability to hypnotize anyone.
In internal Tratak, you have to focus your attention on aagya Chakra…..and for it you have to focus your eyes balls in middle of two eyebrows. You may feel a little bit of pain in starting days. After successfully accomplishing this tratak, on one hand, your aagya chakra starts vibrating….and on the other hand, you attain the eligibility to do Kaal Vikhandan sadhna.
On the physical plane, regular practice of tratak increase your capability of thinking and comprehension multiple times and destroys negative energy present inside you…..Just you have to always keep in mind one thing that whenever practice of Tratak should be done in a peaceful environment. That’s why morning time is considered to be the best.
Mantra given here will help you in quickly attaining success in Tratak procedure. But mantra will work with competence only when you will regularly do the practice of this procedure that too for only 10-15 minutes. You just have to sit peacefully and do gunjaran of the below mantra given by Sadgurudev for 10-15 minutes. It will activate Sushumana and make the attainment of aim very easy.
OM KLEEM KLEEM KREEM KREEM HUM HUM PHAT



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योग शास्त्र के अनुसार हमारे शरीर में नाड़ियों के गुच्छों के रूप में सात चक्र स्थापित हैं जिन्हें सुप्त अवस्था में रहने देना है या जागृत करके उनसे मिलने वाले लाभों से खुद के जीवन को संवारना है यह स्वत: हम पर निर्भर करता है....यह बात हर उस आम व्यक्ति पर लागू होती है जिसे साधनाओं से कोई लेना देना नहीं होता पर जो व्यक्ति अपने जीवन में साधनाएं करते हैं वो जानते हैं की इन चक्रों की उन्के साधनात्मक जीवन में क्या महत्ता है|
वैसे तो हर चक्र का अपना एक विशेष महत्व है पर हमारे भूमध्य में स्थित आज्ञाचक्र का हमारे साधनात्मक जीवन से बड़ा लेनादेना है और वो इसलिए क्योंकि यह चक्र हमारी आँखों के बिलकुल मध्य में स्थित है जहाँ तीसरा नेत्र स्थापित होता है और साधना में आप कितनी तल्लीनता से बैठे हैं या आपका ध्यान कितना भटक रहा है ये सारा खेल यहीं से शुरू होता है ....पर यदि आपको याद हो तो मन से संबंधित लेख में हमने एक बहुत गुढ़ तथ्य को समझा था की –
     “ यदि भ्रम से बचना है तो भ्रम से होने वाले फायदों और नुक्सान को तिलांजली दे दो “
इस कथन का सरल सा अर्थ यह है की वो चीज़ जिसे आप जानते हो की नहीं है उसके पीछे भागना व्यर्थ है .....पर साधना के समय ऐसा नहीं हो पाता.....उस समय तो हमारी मानसिक स्थिति ऐसी होती है जैसे ईश्वर ने समस्त ब्रह्मांड का दायितत्व हमारे कंधो पर ड़ाल दिया हो और यह स्थिति तब तक ज्यों की त्यों रहती है जब तक हम साधना से उठ नहीं जाते, ऐसा होता है यह हम सब जानते हैं पर क्यों होता है इस पर यदा-कदा ही विचार करते हैं| पर असल में यह कभी-कभी नहीं बल्कि रोज विचारने वाला विषय है क्योंकि साधना या मंत्र जाप करने का अर्थ होता है की वो समय हमारा और हमारे इष्ट का है पर उस समय में भी अगर हम ज़माने भर की बातें सोच रहे हैं तो उससे अच्छा है हम आसन पर बैठे ही नहीं क्योंकि मात्र माला चला लेने से, या आँखें मूंद कर बैठ जाने से कोई भगवान कभी खुश नहीं होते ......और साधना में हमारी ऐसी दशा का कारण होता है हमारा मन ......क्योंकि   
 “ जो ज्ञानी होते है वो जानते हैं की मन ना तो भरोसेमंद मित्र है और ना ही आज्ञाकारी सेवक, हम इसे निर्देशित तो कर सकते हैं पर नियंत्रित कदापि नहीं “
.....पर जो सिद्ध सन्यासी होते हैं उनके साथ उनका मन ऐसा खेल कभी नहीं खेलता क्योंकि वो इस तथ्य से पूर्णतः परिचित होते हैं की असल में मन जैसी कोई चीज होती ही नहीं....यह सिर्फ एक भ्रम है, छलावा है और अगर विज्ञान की दृष्टि से इस बात की पुष्टि की जाए तो आपको चिकित्सक कभी किसी ऐसे शारीरिक अंग के बारे में नहीं बताएंगे जिसका नाम “ मन “ हो क्योंकि ऐसा कुछ होता ही नहीं है|
 हमारे मस्तिष्क से निकलने वाली एक विशेष प्रकार की ऊर्जा या यूँ कहें की तरंग को हमने मन का नाम दे दिया है जिस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं हैं क्योंकि ऊर्जा हमेशा तब तक अनियंत्रित रहती है जब तक आपको उसका सदुपयोग समझ में ना आ जाये| हमारे अंदर निरंतर बनने वाली ऊर्जा को नियंत्रण में करने के लिए पहले हमें इसके मूल को समझना पड़ेगा जहाँ से इस ऊर्जा का निर्माण होता है|
......हम शरीर में सत, रज, और तम तीनों गुण कम या अधिक अनुपात में मौजूद हैं और हमारे मन या विचारों की गति और कार्य करने की क्षमता इन तीनों गुणों से हमेशा प्रभावित होती है और जिस समय आपके अंदर जिस गुण की प्रधानता होगी उस समय मस्तिष्क से निकलने वाली ऊर्जा, जिसे हमने मन का संबोधन दिया है, उसी तरफ जायेगी क्योंकि यह एक प्राकृतिक नियम है की ऊर्जा का प्रवाह हमेशा शक्ति के घनत्व की तरफ ही होता है और यही कारण है की हम हमेशा एक जैसे काम कभी नहीं करते.....कभी हम साधू होते है तो कभी.....
साधना में मन या अपने विचारों को स्थिर रखने के लिए ध्यान मार्ग, योग मार्ग इत्यादि में हजारों तरीके बताए गए हैं पर उन सब विधियों से उपर अगर कोई शक्ति या क्रिया है जो आपको अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर करती सकती है...तो वो हैं आप खुद हो क्योंकि आपको आपसे ज्यादा अच्छे से ओर कोई नहीं जानता| इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की आपने आज तक अपने विचारों को एकाग्र करने के लिए किन-किन नियमों का पालन किया है क्योंकि आपके द्वारा किये गए सारे क्रिया कलाप व्यर्थ हो जाते हैं जब तक आपकी आँखे स्थिर नहीं हो जाती ओर आँखों को स्थिर करने के लिए आपको खुद को थकाने की कोई जरूरत नहीं है....यदि किसी चीज़ की जरूरत है तो वो है खुद को दोष मुक्त करने की....
 हम सब यह तो जानते हैं की मन या विचारों को नियंत्रित करना अत्यंत दुष्कर है....पर हमें यह तथ्य भी पता होना चाहिए की चेतना कभी मलीन या दूषित नहीं होती, ये तो हमारी आत्मा की एक तरंग है जिसे हमें बस सही दिशा दिखानी होती है और इस चेतना को हम सही दिशा तभी दिखा पायेंगे जब हमें इसका सही मार्ग पता हो| हठयोग में ६ तरह की अलग – अलग क्रियाएँ बताई गयी हैं जिनमें सेत्राटक को श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि यह हमारी मानसिक शान्ति के साथ-साथ आध्यात्मिक शक्ति को भी बढ़ाता है|
हमारे मस्तिष्क में तरंगों के रूप में विचार हमेशा आते-जाते रहते हैं पर जब हम त्राटक का अभ्यास करते हैं तो इन विचारों के आने जाने से शतिग्र्स्त होने वाली ऊर्जा का ७० प्रतिशत हम पुन्ह: प्राप्त कर लेते हैं और वो इसलिए क्योंकि अब हमारी दौड़ विचारों को पकड़ने की ना होकर आँखों को स्थिर करने की है और यदि आप कोशिश करेंगे तो आप जानेंगे की विचारों की तुलना में आँखों की पुतलियों को स्थिर करना ज्यादा सहज भी है और कारागार भी| और यह एक बार नहीं हजारों बार अनुभूत की गयी क्रिया है की जैसे ही आपकी आँखों की पुतलियाँ स्थिर होती हैं...आपका मन भी आपके नियंत्रण में आ जाता है और इसका पता हमें चलता है शक्ति चक्र के मध्य में स्थित बिंदु के स्थिर हो जाने से|
 त्राटक दो तरीकों से किया जा सकता है-
१) बाह्य त्राटक
२) आंतरिक त्राटक
बाह्य त्राटक में आपको अपना ध्यान शक्ति चक्र के मध्य में स्थित बिंदु पर केंद्रित करना होता है जिससे आध्यात्मिक स्तर पर आप अपने विचारों पर नियंत्रण करने की कला सीखते हो और भौतिक स्तर पर आपकी आँखों में स्वत: ही किसी को भी सम्मोहित करने की क्षमता पैदा हो जाती है|
आंतरिक त्राटक में आपको अपने आज्ञाचक्र पर ध्यान केंद्रित करना होता है....और इस क्रिया में आपको अपनी आँखों की पुतलियों को भूमध्य में केंद्रित करना पड़ता है जिससे शुरूआती दिनों में थोड़ा दर्द हो सकता है| इस त्राटक को सफलतापूर्वक करने से जहाँ आपके आज्ञाचक्र में स्पंदन होना शुरू हो जाता है.....वहीँ आप काल विखंडन साधना को करने की पात्रता भी अर्जित कर लेते हो|
भौतिक स्तर पर त्राटक का नियमित अभ्यास आपके सोचने, समझने की क्षमता को कई गुना बढ़ा देता है और आपने अंदर नाकारात्मक ऊर्जा को नष्ट भी करता है.....बस आपको एक बात हमेशा ध्यान में रखनी है की आप जब भी त्राटक का अभ्यास करो तो आपके चारों तरफ शान्ति हो और इसीलिए सुबह का समय इसके लिए सबसे श्रेष्ठ माना जाता है|
 यहाँ दिया गया मंत्र त्राटक की इस क्रिया में शीघ्रातिशीघ्र सफल होने में आपकी सहायता करेगा पर मंत्र अपना काम तभी दक्षता से करेगा जब आप नियमित रूप से इस क्रिया का अभ्यास करेंगे वो भी बस १० से १५ मिनट तक|  आपको मात्र शांत बैठ कर सदगुरुदेव प्रदत्त निम्न मंत्र का १०-१५ मिनट गुंजरन करना है.ये सुषुम्ना को जाग्रत कर आपके लक्ष्य प्राप्ति को सरल और सुगम कर देता है.
ॐ क्लीं क्लीं क्रीं क्रीं हुं हुं फट् ||
(OM KLEEM KLEEM KREEM KREEM HUM HUM PHAT)

Tuesday, December 21, 2010

Devotion is experience OF BackLife

जन्मों का अनुभव है भक्ति

      
भक्त का हृदय एक प्रार्थना है, एक अभीप्सा है-परमात्मा के द्वार पर एक दस्तक है। भक्त के प्राणों में एक ही अभिलाषा है कि जो छिपा है वह प्रगट हो जाए, कि घूंघट उठे, कि वह परम प्रेमी या परम प्रेयसी मिले। इससे कम पर उसकी तृप्ति नहीं। उसे कुछ और चाहिए नहीं। और सब चाहकर देख भी लिया। चाह-चाह कर सब देख लिया। सब चाहें व्यर्थ पाई। दौडाया बहुत चाहों ने, पहुंचाया कहीं भी नहीं।
जन्मों-जन्मों की मृगतृष्णाओं के अनुभव के बाद कोई भक्त होता है। भक्ति अनंत-अनंत जीवन की यात्राओं के बाद खिला फूल है। भक्ति चेतना की चरम अभिव्यक्ति है। भक्ति तो केवल उन्हीं को उपलब्ध होती है जो बडभागी हैं। नहीं तो हम हर बार फिर उन्हीं चक्करों में पड जाते हैं। बार-बार फिर कोल्हू के बैल की तरह चलने लगते हैं। मनुष्य के जीवन में अगर कोई सर्वाधिक अविश्वसनीय बात है तो वह यह है कि मनुष्य अनुभव से कुछ सीखता ही नहीं। उन्हीं-उन्हीं भूलों को दोहराता है। भूलें भी नई करे तो भी ठीक, बस पुरानी ही भूलों को दोहराता है। रोज-रोज वही, जन्म-जन्म वही। भक्ति का उदय तब होता है, जब हम जीवन से कुछ अनुभव लेते हैं, कुछ निचोड।
निचोड क्या है जीवन का? कि कुछ भी पा लो, कुछ भी पाया नहीं जाता। कितना ही इकट्ठा कर लो और तुम भीतर दरिद्र के दरिद्र ही रहे आते हो। धन तुम्हें धनी नहीं बनाता-जब तक कि वह परम धनी न मिल जाए, वह मालिक न मिले। धन तुम्हें और भीतर निर्धन कर जाता है। धन की तुलना में भीतर की निर्धनता और खलने लगती है।
मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा, सब धोखे हैं, आत्मवंचनाएं हैं। कितना ही छिपाओ अपने भावों को-अपने घावों के ऊपर गुलाब के फूल रख दो, इससे घाव मिटते नहीं। भूल भले जाएं क्षण-भर को, भरते नहीं। दूसरों को भले धोखा हो जाए, खुद को कैसे धोखा दोगे? तुम तो जानते ही हो, जानते ही रहोगे कि भीतर घाव है, ऊपर गुलाब का फूल रखकर छिपाया है। सारे जगत को भी धोखा देना संभव है, लेकिन स्वयं को धोखा देना संभव नहीं है।
जिस दिन यह स्थिति प्रगाढ होकर प्रगट होती है, उस दिन भक्त का जन्म होता है। और भक्त की यात्रा विरह से शुरू होती है। क्योंकि भक्त के भीतर एक ही प्यास उठती है अहर्निश - कैसे परमात्मा मिले? कहां खोजें उसे? उसका कोई पता और ठिकाना भी तो नहीं। किससे पूछें? हजारों हैं उत्तर देने वाले, लेकिन उनकी आंखों में उत्तर नहीं। हजारों हैं शास्त्र लिखने वाले, लेकिन उनके प्राणों में सुगंध नहीं। हजारों हैं जो मंदिरों में, मसजिदों में, गुरुद्वारों में प्रार्थनाएं कर रहे हैं, लेकिन उनकी प्रार्थनाओं में आंसुओं का गीलापन नहीं है। हृदय का रंग नहीं है-रूखी हैं, सूखी हैं, मरुस्थल-सी हैं। प्रार्थना कहीं मरुस्थल होती है? प्रार्थना तो मरूद्यान है, उसमें तो बहुत फूल खिलते हैं, बहुत सुवास उठती है।
हां, बाहर की आरती तो लोगों ने सजा ली, पर भीतर का दीया बुझा है। बाहर तो धूप-दीप का आयोजन कर लिया है और भीतर सब शून्य है, रिक्त है। भक्त को यह पीडा खलती है। भक्त झूठी भक्ति से मन को बहला नहीं सकता। ये खिलौने अब उसके काम के न रहे। अब तो असली चाहिए। अब कोई नकली चीज उसे न भा सकती है, न भरमा सकती है, तो गहन विरह की आग जलनी शुरू होती है। प्यास उठती है और चारों तरफ झूठे पानी के झरने हैं। जितनी झूठे पानी के झरने की पहचान होती है, उतनी ही प्यास और प्रगाढ होती है। एक घडी ऐसी आती है, जब भक्त धू-धू कर जलती हुई एक प्यास ही रह जाता है। उस प्यास के संबंध में ही ये प्यारे वचन दरिया ने कहे हैं।
जाके उर उपजी नहिं भाई।
सो क्या जाने पीर पराई।।
यह विरह ऐसा है कि जिस हृदय में उठा हो वही पहचान सकेगा। यह पीर ऐसी है। यह अनूठी पीडा है। यह साधारण पीडा नहीं है। साधारण पीडा से तो तुम परिचित हो। कोई है जिसे धन की प्यास है। और कोई है जिसे पद की प्यास है। नहीं मिलता तो पीडा भी होती है। बाहर की पीडाओं से तो तुम परिचित हो, लेकिन भीतर की पीडा को तो तुमने कभी उघाडा नहीं। तुमने भीतर तो कभी आंख डालकर देखा ही नहीं कि वहां भी एक पीडा का निवास है। और ऐसी पीडा का कि जो पीडा भी है और साथ ही बडी मधुर भी। पीडा है, क्योंकि सारा संसार व्यर्थ मालूम होता है। और मधुर, क्योंकि पहली बार उसी पीडा में परमात्मा की धुन बजने लगती है। पीडा.. जैसे छाती में किसी ने छुरा भोंक दिया हो। ऐसा बिंधा रह जाता है भक्त।
फिर भी यह पीडा सौभाग्य है। क्योंकि इसी पीडा के पार उसका द्वार खुलता है, उसके मंदिर के पट खुलते हैं। यह पीडा सूली भी है, सिंहासन भी। इसलिए पीडा बडी रहस्यमय है। भक्त रोता भी है, पर उसके आंसू और तुम्हारे आंसू एक ही जैसे नहीं होते। हां, वैज्ञानिक के पास ले जाओगे परीक्षण करवाने, तो वह तो कहेगा एक ही जैसे हैं। दोनों खारे हैं-इतना नमक है, इतना जल, इतना-इतना क्या-क्या है, सब विश्लेषण करके बता देगा। भक्त के आंसुओं में और साधारण दुख के आंसुओं में उसे भेद दिखाई न पडेगा। इसलिए वैज्ञानिक परम मूल्यों के संबंध में अंधा है। तुम तो जानते हो आंसुओं आंसुओं का भेद। कभी तुम आनंद से भी रोए हो। कभी दुख से भी। कभी क्रोध से भी रोए हो, कभी मस्ती से भी। तुम्हें भेद पता है, लेकिन भेद आंतरिक है। यांत्रिक नहीं है, बाह्य नहीं है। इसलिए बाहर की किसी विधि की पकड में नहीं आता। फिर भक्त के आंसू तो परम अनुभूति हैं, जो हृदय के पोर-पोर से रिसती है। उसमें पीडा है बहुत, क्योंकि परमात्मा को पाने की अभीप्सा जगी है। और उसमें आनंद भी है बहुत, क्योंकि परमात्मा को पाने की अभीप्सा जगी है। परमात्मा को पाने की आकांक्षा का जग जाना ही इतना बडा सौभाग्य है कि भक्त नाचता है। केवल थोडे-से सौभाग्यशालियों को यह पीडा मिलती है। यह अभिशाप नहीं, वरदान है। इसे वे ही पहचान सकेंगे, जिनने थोडा स्वाद लिया है।
जाके उर उपजी नहिं भाई। और यह पीडा मस्तिष्क में पैदा नहीं होती। यह कोई मस्तिष्क की खुजलाहट नहीं है। मस्तिष्क की खुजलाहट से दर्शनशास्त्रों का जन्म होता है। यह पीडा तो हृदय में पैदा होती है। इस पीडा का विचार से कोई नाता नहीं है। यह पीडा तो भाव की है। इस पीडा को कहा भी नहीं जा सकता। विचार व्यक्त हो सकते हैं, भाव अव्यक्त ही रहते हैं। विचारों को दूसरों से निवेदन किया जा सकता है और निवेदन करके आदमी थोडा हलका हो जाता है। किसी से कह लो। दो बात कर लो। मन का बोझ उतर जाता है। पर यह पीडा ऐसी है कि किसी से कह भी नहीं सकते। कौन समझेगा? लोग पागल समझेंगे तुम्हें।
कल एक जर्मन महिला ने संन्यास लिया। एक शब्द न बोल सकी। शब्द बोलने चाहे तो हंसी, रोई, हाथ उठे, मुद्राएं बनीं। खुद चौंकी भी बहुत, क्योंकि शायद पागल समझी जाए। रोती है, डोलती है। हाथ उठते हैं, कुछ कहना चाहते हैं। ओंठ खुलते हैं, कुछ बोलना चाहते हैं। मगर विचार हो तो कह दो, भाव हो तो कैसे कहो? भाव तो केवल वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने उस पीडा का थोडा अनुभव किया हो। इसलिए सत्संग का मूल्य है। सत्संग का अर्थ है : जहां तुम जैसे और दीवाने भी मिलते हैं। सत्संग का अर्थ है : जहां चार दीवाने मिलते हैं, जो एक -दूसरे का भाव समझेंगे, जो एक-दूसरे के भाव के प्रति सहानुभूति, सहानुभूति ही नहीं समानुभूति भी अनुभव करेंगे। जहां एक के आंसू दूसरे के आंसुओं को छेड देंगे और जहां एक का गीत, दूसरे के भीतर गीत की गूंज बन जाएगा और जहां एक नाच उठेगा तो शेष सब भी पुलक से भर जाएंगे, जहां एक ऊर्जा उन सबको घेर लेगी।
सत्संग अनूठी बात है। सत्संग का अर्थ है जहां पियक्कड मिल बैठे हैं। अब जिन्होंने कभी पी ही नहीं है शराब, वे तो कैसे समझेंगे? और बाहर की शराब तो कहीं भी मिल जाती है। भीतर की शराब तो कभी-कभी, बहुत मुश्किल से मिलती है। क्योंकि भीतर की शराब जहां मिल सके, ऐसी मधुशालाएं ही कभी-कभी सैकडों सालों के बाद निर्मित होती हैं। किसी बुद्ध के पास, किसी नानक के पास, किसी दरिया के पास, किसी फरीद के पास, कभी सत्संग का जन्म होता है। सत्संग किसी जाग्रत पुरुष की हवा है। सत्संग किसी जाग्रत पुरुष के पास तरंगायित भाव की दशा है। सत्संग किसी के जले हुए दीये की रोशनी है। उस रोशनी में जब चार दीवाने बैठ जाते हैं, हृदय से हृदय जुडता है और हृदय से हृदय तरंगित होता है, तभी जाना जा सकता है। दरिया ठीक कहते हैं। तुम जरा भी समझ लो इस पीर को, तो तुम्हारे जीवन में भी अमृत की वर्षा हो जाए। अमी झरत, बिगसत कंवल। झरने लगे अमृत और खिलने लगे कमल आत्मा के। मगर इस पीडा के बिना कुछ भी नहीं है। यह प्रसव पीडा है।

Tuesday, April 27, 2010

Seeker and master (साधक और सदगुरु)

प्रश्न: सदगुरु मिल गए। साधक को इसकी प्रत्यभिज्ञा, पहचान कैसे हो?
साधक और सदगुरु
साधक हो, तो क्षणभर की देर नहीं लगती। साधक ही न हो, तो प्रत्यभिज्ञा का कोई उपाय नहीं। प्यासा हो, तो पानी मिल गया--क्या इसे किसी और से पूछने जाना पड़ेगा? प्यास ही प्रत्यभिज्ञा बन जाएगी। कंठ की तृप्ति ही प्रमाण हो जाएगी।

लेकिन प्यास ही न हो, जल का सरोवर भरा रहे और तुम्हारे कंठ ने प्यास न जानी हो, तो जल की पहचान न हो सकेगी। पानी तो प्यास से पहचाना जाता है, शास्त्रों में लिखी परिभाषाओं से नहीं।

अगर साधक है कोई--साधक का अर्थ क्या है? साधक का अर्थ है कि खोजी है, आकांक्षी है, अभीप्सा से भरा है। साधक का अर्थ है, कि प्यासा है सत्य के लिए।

सौ साधकों में निन्यानवे साधक होते नहीं, फिर भी साधन की दुनिया में उतर जाते हैं। इससे सारी उलझन खड़ी होती है।

तुम्हें प्यास न लगी हो और किसी दूसरे ने जिसने प्यास को जानी है, प्यास की पीड़ा जानी है और फिर जल के पीने की तृप्ति जानी है, तुमसे अपनी तृप्ति की बात कही: बात-बात में तुम प्रभावित हो गए। तुम्हारे मन में भी लोभ जगा। तुमने भी सोचा, कि ऐसा आनंद हमें भी मिले, ऐसी तृप्ति हमें भी मिले। तुम यह भूल ही गए, कि बिना प्यास के तृप्ति का कोई आनंद संभव नहीं है।

उस आदमी ने जो तृप्ति जानी है, वह प्यास की पीड़ा के कारण जानी है। जितनी गहरी होती है पीड़ा, उतनी ही गहरी होती है तृप्ति। जितनी छिछली होती है पीड़ा, उतनी ही छिछली होती है तृप्ति। और पीड़ा हो ही न, और तुम लोभ के कारण निकल गए पानी पीने, तो प्यास तो है ही नहीं। पहचानोगे कैसे, कि पानी हैं?

शास्त्र की परिभाषाओं के अनुसार समझ लिया कि पानी होगा, तो हमेशा संदेह बना रहेगा। क्योंकि अपने भीतर तो कोई भी प्रमाण नहीं है। तुम्हारा कोई संसर्ग तो हुआ नहीं जल से। जलधार से तुम्हारे प्राण तो जुड़े नहीं। तुम तो दूर से ही दूर बने रहे हो। और तुम पानी पी भी लो बिना प्यास के और ठीक असली पानी हो, तो भी तो आनंद उपलब्ध न होगा। उलटा भी हो सकता है। कि वमन की इच्छा हो जाए, उलटी हो जाए।

प्यास न हो, तो पानी पीना खतरनाक है। भूख न हो, तो भोजन कर लेना मंहगा पड़ सकता है। सत्य को चाहा ही न हो, तो सदगुरु का मिलना खतरनाक हो सकता है।

सौ में से निन्यानवे लोग तो लोभ के कारण उत्सुक हो जाते हैं। उपनिषद गीत गाते हैं। दादू, कबीर उस परम आनंद की चर्चा करते हैं। सदियों-सदियों में मीरा और नानक, चैतन्य नाचे हैं। उनका नाच तुम्हें छू जाता है। उनके गीत की भनक तुम्हारे कान में पड़ जाती है। उन्हें देखकर तुम्हारा हृदय लोलुप हो उठता है। तुम भी ऐसे होना चाहोगे।

बुद्ध के पास जाकर किसका मन नहीं हो उठता, कि ऐसी शांति हमें भी मिले! लेकिन उतनी अशांति तुमने जानी है, जो बुद्ध ने जानी? वही अशांति तो तुम्हारी शांति का द्वार बनेगी। तुमने उस पीड़ा को झेला है, जो बुद्ध ने झेली? तुम उस मार्ग से गुजरे हो--कंटकाकीर्ण--जिससे बुद्ध गुजरे? तो मंजिल पर आकर जो वे नाच रहे हैं, वह उस मार्ग के सारे के सारे दुख अनुभव के कारण।

तुम सीधे मंजिल पर पहुंच जाते हो; मार्ग का तुम्हें कोई पता नहीं। मंजिल भी मिल जाए, तो मिली हुई नहीं मालूम पड़ती। और संदेह तो बना ही रहेगा।

इसलिए यह तो पूछो ही मत, कि सदगुरु मिल गए, इसकी साधक को प्रत्यभिज्ञा कैसे हो, पहचान कैसे हो?
सदगुरु की फिक्र छोड़ो। पहली फिक्र यह कर लो, कि साधक हो? पहले तो इसकी ही प्रत्यभिज्ञा कर लो, कि साधक हो?

अगर साधक हो, तो जैसे ही गुरु मिलेगा, प्राण जुड़ जाएंगे; तार मिल जाएगा। कोई बताने की जरूरत न पड़ेगी। अगर उजाला आ जाए, तो क्या कोई तुम्हें बताने आएगा, तब तुम पहचानोगे कि यह अंधेरा नहीं, उजाला है? अंधे की आंख खुल जाए, तो क्या अंधे को दूसरों को बताना पड़ेगा, कि अब तेरी आंख खुल गई, अब तू देख सकता है देख। आंख खुल गई, कि अंधा देखने लगता है। रोशनी आ गई कि पहचान ली जाती है, स्वतः प्रमाण है।

सदगुरु का मिलन भी स्वतः प्रमाण है। नहीं तो आखिर में तुम सवाल पूछोगे, कि जब परमात्मा मिलेगा तो कैसे प्रत्यभिज्ञा होगी, कैसे पहचानेंगे कि यही परमात्मा है? कोई जरूरत ही नहीं है।

जब तुम्हारे सिर में दर्द होता है, तब तुम पहचान लेते हो दर्द। और जब दर्द चला जाता है तब भी तुम पहचान लेते हो, कि अब सब ठीक हो गया--स्वस्थ। दोनों तुम पहचान लेते हो। जब प्राणों में पीड़ा होती है, तब भी तुम पहचान लेते हो; जब प्राण तृप्त हो जाते हैं, तब भी पहचान लेते हो।

नहीं, कोई प्रत्यभिज्ञा का शास्त्र नहीं है। जरूरत ही नहीं है।
लेकिन भूल पहली जगह हो जाती है। लोभ के कारण बहुत लोग साधना में प्रविष्ट हो जाते हैं। और अगर लोभ के कारण प्रविष्ट न हों, तो भय के कारण प्रविष्ट हो जाते हैं। वह एक ही बात है। लोभ और भय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कोई इसलिए परमात्मा की प्रार्थना कर रहा है कि डर हुआ है, भयभीत है। कोई इसलिए प्रार्थना कर रहा है कि लोभातुर है। पर दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। दोनों में कोई भी साधक नहीं है। साधक का तो अर्थ ही यह है, कि जीवन के अनुभव से जाना, कि जीवन व्यर्थ है। जीवन से गुजरकर पहचाना, कि कोई सार नहीं है। हाथ सिवाय राख लगी कुछ भी न लगा। सब जीवन के अनुभव देख लिए और खाली पाए; पानी के बबूले सिद्ध हुए। जब सारा जीवन राख हो जाता है, जो भी तुम चाह सकते थे, जो भी तुम मांग सकते थे, जो भी तुम्हारी वासना थी, सब व्यर्थ हो जाती है, सब इंद्रधनुष टूट जाते हैं, खंडहर रह जाता है जीवन का--उस अनुभूति के क्षण में खोज शुरू होती है, कि फिर सत्य क्या है? सब जीवन तो सपना हो गया। न केवल सपना, बल्कि दुख-सपना हो गया; अब सत्य क्या है?

जब तुम ऐसी उत्कंठा से भरते हो, तब गुरु को पहचानना न पड़ेगा। गुरु के पैरों की आवाज सुनकर तुम्हारे हृदय के घूंघर बज उठेंगे। गुरु की आंख में आंख पड़ते ही सदा के बंद द्वार खुल जाएंगे। गुरु का स्पर्श तुम्हें नचा देगा। उसका एक शब्द--और तुम्हारे भीतर ऐसी ओंकार की ध्वनि गूंजने लगेगी, जो तुमने कभी नहीं जानी थी। तुम एक नई पुलक, एक नए संगीत और नए जीवन से आपूरित हो उठोगे।

नहीं, कोई पहचानने की जरूरत न पड़ेगी। तुम पूछोगे नहीं। और सारी दुनिया भी कहती हो, कि यह आदमी सतगुरु नहीं तो भी कोई तुम्हें फर्क नहीं पड़ेगा तुम्हारे हृदय ने जान लिया। और हृदय की पहचान ही एकमात्र पहचान है।

इसलिए पहले तुम खोज कर लो, कि साधक हो? वहीं भूल हो गई, तो फिर मैं तुम्हें सारा शास्त्र भी बता दूं, कि इस-इस भांति पहचानना गुरु को, कुछ काम न आएगा।

क्योंकि जितने गुरु हैं उतने ही प्रकार के हैं। कोई परिभाषा काम नहीं आ सकती। महावीर अपने ढंग के हैं, बुद्ध अपने ढंग के, कृष्ण अपने ढंग के, क्राइस्ट अपने ढंग के, मुहम्मद की बात ही और है। सब अनूठे हैं। अगर तुमने कोई परिभाषा बनाई तो वह किसी एक ही गुरु के आधार पर बनेगी। और वैसा गुरु दुबारा पैदा होने वाला नहीं है। इसलिए तुम्हारी परिभाषा में कभी कोई गुरु बैठेगा नहीं।

जो गुरु पैदा होंगे, वे तुम्हारी परिभाषा में न बैठेंगे। और जिसकी तुम परिभाषा लेकर चल रहे हो, वह दुबारा पैदा नहीं होता। कहीं दुबारा बुद्ध होते हैं! कहीं दुबारा महावीर होते हैं! नाटक करना एक बात है, दुबारा महावीर होना तो बहुत मुश्किल है। अभिनय और बात है। रामलीला की बात मत उठाओ, राम होना बहुत मुश्किल है।

अगर तुमने किसी की परिभाषा पकड़ ली, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे क्योंकि उस परिभाषा को पूरा करने वाला दुबारा न आएगा। वह आ चुका और जा चुका। और जब वह आया था, तब तुम पहचान न सके क्योंकि तब तुम कोई दूसरी पुरानी परिभाषा लिए बैठे थे।

महावीर जब मौजूद थे, तब तुम्हारे पास कृष्ण की परिभाषा थी। महावीर बिलकुल बैठे न उस परिभाषा में। हिंदू-शास्त्रों ने महावीर का उल्लेख ही नहीं किया। इतना महिमावान पुरुष पैदा हुआ और इस देश का बड़े से बड़ा धर्म, इस देश की बहुसंख्या के शास्त्र उसका उल्लेख भी नहीं करते। क्या बात हो गई होगी? एक बार महावीर का नाम नहीं लेते। पक्ष की तो छोड़ दो, विपक्ष में भी कुछ नहीं कहते। प्रशंसा न करो, कम से कम निंदा तो करते!

नहीं, उतना भी ध्यान न दिया। परिभाषा में ही न बैठा यह आदमी। परमात्मा की परिभाषा उनकी और थी। उन्होंने देखा था कृष्ण को मोरमुकुट बांधे, यह आदमी नग्न खड़ा था। इससे कहीं मेल नहीं बैठता था। उन्होंने कृष्ण को देखा था बांसुरी बजाते। इस आदमी की अगर कोई बांसुरी थी, तो इतनी अदृश्य थी, कि किसी को दिखाई नहीं पड़ी। यह इस आदमी के पास कोई बांसुरी ही न थी, यह आदमी उनकी भाषा में कहीं आया नहीं। सब पुराने संकेतों, कसौटियों का कसा नहीं जा सका। तब महावीर चूक गए।

महावीर को जिन थोड़े से लोगों ने समझा, जिनकी प्यास थी, जिन्होंने पहचाना, जो बिना परिभाषा के पहचानने को राजी थे, वे वे ही लोग थे, जिनकी प्यास थी। अब वे दूसरी परिभाषा बना गए। अब उनके अनुयायी उस परिभाषा को ढो रहे हैं। अब बहुत अड़चन है। अगर वे मुझे बैठे इस कुर्सी पर देख लें, अड़चन है। महावीर कुर्सी पर कभी बैठे नहीं। यह आदमी गलत है। कपड़ा पहने देख लें, मुश्किल। क्योंकि महावीर तो नग्न थे। दिगंबरत्व तो लक्षण है।

अभी तो मुझे वे ही लोग पहचान सकते हैं, जिनकी प्यास है। और खतरा उनके साथ भी यही रहेगा, कि मेरे जाने के बाद वे कोई परिभाषा बना लेंगे, जो दूसरों को उलझाएगी क्योंकि फिर दुबारा कोई आता नहीं।

मेरी बात ठीक से समझ लो। जब तक तुम परिभाषा बनाते हो, आदमी चला जाता है। जब तुम्हारी परिभाषा बनकर तैयार हो जाती है, बिलकुल सुनिश्चित हो जाती है, तब दुबारा वैसा आदमी पैदा नहीं होता। धर्म की सारी विडंबना यही है। इसलिए तुम कृपा करो, परिभाषाएं मत पूछो। प्यास पूछो। अपनी प्यास टटोलो।

अगर प्यास न हो, धर्म की बात ही छोड़ दो। अभी धर्म का क्षण नहीं आया। अभी थोड़े और भटको। अभी थोड़ा और दुख पाओ। अभी दुख को तुम्हें मांजने दो। अभी दुख तुम्हें और निखारेगा। अभी जल्दी मत करो। अभी बाजार में ही रहो। अभी मंदिर की तरफ पीठ रखो। क्योंकि जब तक तुम ठीक से पीड़ा से न भर जाओ, लाख बार मंदिर आओ, आना न हो पाएगा। हर बार खाली हाथ आओगे, खाली हाथ लौट जाओगे।

मंदिर तो उसी दिन आओगे, जिस दिन बाजार की तरफ पीठ ही हो जाए। तुम जान ही लो कि सब व्यर्थ है। उस दिन तुम बाजार में बैठे-बैठे पाओगे, मंदिर ने तुम्हें घेर लिया। उस दिन तुम्हें गुरु खोजने न जाना पड़ेगा, वह तुम्हारे द्वार पर आकर दस्तक देगा। अपनी प्यास को परख लो।

मगर बड़ा मजा है, लोग प्यास का सवाल ही नहीं उठाते; पूछते हैं, सदगुरु की परीक्षा क्या? तुम अपनी परीक्षा कर लो। तुम तक तुम्हारी परीक्षा काफी है; उससे आगे मत जाओ। तुम्हें प्रयोजन भी क्या है सदगुरु से? तुम अपनी प्यास को पहचान लो। अगर प्यास है, तो तुम जल की खोज कर लोगे--करनी ही पड़ेगी मरुस्थल में भी आदमी जल खोज लेता है, प्यास होनी चाहिए।

और प्यास न हो, तो सरोवर के किनारे बैठा रहता है। जल दिखाई ही नहीं पड़ता। जल के होने से थोड़े ही जल दिखाई पड़ता है! भीतर की प्यास होने से दिखाई पड़ता है।

कभी उपवास करके बाजार गए? उस दिन फिर कपड़े की दूकानें नहीं दिखाई पड़तीं, सोने चांदी की दूकानें नहीं दिखाई पड़तीं, सिर्फ रेस्ट्रां, होटल! उपवास करके बाजार में जाओ, सब तरफ से भोजन की गंध आती मालूम पड़ती है, जो पहले कभी नहीं मालूम पड़ी थी। सब तरफ भोजन ही बनता हुआ दिखाई पड़ता है। वह पहले भी बन रहा था, लेकिन तब तुम भूखे न थे।

भूखे को भोजन दिखाई पड़ता है।

प्यासे को पानी दिखाई पड़ता है।

साधक को सदगुरु दिखाई पड़ जाता है।