प्रेम न बाड़ी उपजे ,प्रेम न हाट बिकाय ,
राजा परजा जेहि रूचे ,शीश धरै लै जाय।
प्रेम की खेती नहीं होती जैसे बीज बाडि में उपजाया जाता है। वहाँ तो बीज साधन होता है ,फसल साध्य हो जाती है। प्रेम तो अपने आप में साध्य है। उसका फसल की तरह लाभ नहीं कमाया जाता।
अपने अहंकार को मारना ही प्रेम होता है। जो धन के बल पर अपने ऐश्वर्य का रूतबा दिखाकर दूसरों को फंसाता है वह प्रेम नहीं होता है।
स्वयं का समर्पण अहंकार का त्याग ,स्वार्थ का सिर काटना ही प्रेम है।
प्रेम जीवन की परम समाधि है ... प्रेम ही शिखर है जीवन ऊर्जा का ...वही गौरीशंकर है जिसने प्रेम को जाना, उसने सब जान लिया.
जो प्रेम से वंचित रह गया, वह सभी कुछ से वंचित रह गया. प्रेम की भाषा को ठीक से समझ लेना जरूरी है ... प्रेम के शास्त्र को ठीक से समझ लेना जरूरी है , क्योंकि प्रेम ही तीर्थयात्रा है ।
प्रेम का अर्थ है, समर्पण की दशा, जहां दो मिटते हैं, एक बचता है ... जहां प्रेमी और प्रेम पात्र अपनी सीमाएं खो देते हैं, जहां उनकी दूरी समग्र रूपेण शून्य हो जाती है ।
यह उचित नहीं कि प्रेमी और प्रेम-पात्र करीब आ जाते है , क्योंकि निकट होना भी दूरी है ।
प्राय: हम मतभेदों में उलझ जाते हैं, क्योंकि स्वभाव से दूर हो गए हैं।
प्रेम के नाम पर दूसरे व्यक्ति को इच्छानुसार चलाना चाहते हैं। यह स्वाभाविक है कि जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो चाहते हैं कि वे पूर्ण हों-त्रुटिरहित।
पहाड़ी के ऊपर से हम जमीन के गड्ढे नहीं देख सकते ,
हवाई जहाज से देखने पर पृथ्वी समतल नजर आती है।
इसी प्रकार जब चेतना विस्तृत होती है, हमे दूसरों की त्रुटियां नहीं नजर आती हैं ,
परंतु यदि जमीन पर आते हैं तो हम हमेशा गड्ढों को देखते हैं।
गड्ढों को भरना चाहते हैं तो हमे , उन्हें देखना ही होगा। हवा में रहकर हम घर नहीं बना सकते।
इसीलिए, जब हम किसी को प्रेम करते हैं , हमे अपने प्रेम पात्र के सभी दोष दिखाई देते हैं।
परंतु दोष देखने से प्रेम नष्ट होता है।
गड्ढों को भरने के बदले हम उनसे दूर भागते हैं।
जब हम किसी से प्रेम करते हैं और उनमें दोष ही दोष देखते हैं ...जबकि होना ये चाहिए कि हम अपने प्रेम पात्र के साथ रहें और गड्ढे भरने में उसकी मदद करें।
यही प्रज्ञा है।
प्रेम में ईर्ष्या हो तो प्रेम ही नहीं है; फिर प्रेम के नाम से कुछ और ही रोग चल रहा है।
ईर्ष्या सूचक है प्रेम के अभाव की।
ईर्ष्या का मिट जाना ही प्रेम का प्रमाण है। ईर्ष्या अँधेरे जैसी है; प्रेम प्रकाश जैसा है। इसको कसौटी समझना उत्तम होगा ।
जब तक ईर्ष्या रहे तब तक समझना कि प्रेम प्रेम नहीं ...
तब तक प्रेम के नाम से कोई और ही खेल चल रहा है ,
" अहंकार कोई नई यात्रा कर रहा है- प्रेम के नाम से दूसरे पर मालकियत करने का मजा,
प्रेम के नाम से दूसरे का शोषण,
दूसरे व्यक्ति का साधन की भांति उपयोग और
दूसरे व्यक्ति का साधन की भाँति उपयोग जगत में सबसे बड़ी अनीति है ...क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति साध्य है, साधन नहीं। "
असली प्रेम उसी दिन उदय होता है जिस दिन हम इस सत्य को समझ पाते हैं कि सब तरफ परमात्मा विराजमान है।
तब सेवा के अतिरिक्त कुछ बचता नहीं।
प्रेम तो सेवा है, ईर्ष्या नहीं ... प्रेम तो समर्पण है, मालकियत नहीं।
सिर्फ ज्ञानीपुरुष ही जो केवल प्रेम कि जीवंत मूर्ति हैं, हमें प्रेम कि सही परिभाषा बता सकते हैं। सच्चा प्रेम वही है जो कभी बढ़ता या घटता नहीं है।
मान देनेवाले के प्रति राग नहीं होता, न ही अपमान करनेवाले के प्रति द्वेष होता है।
ऐसे प्रेम से दुनिया निर्दोष दिखाई देती है।
यह प्रेम मनुष्य के रूप में भगवान का अनुभव करवाता है।
सच्चा प्रेम उसी व्यक्ति में हो सकता है जिसने अपने आत्मा को पूर्ण रूप से जान लिया है। प्रेम ही ईश्वर है और ईश्वर ही प्रेम है ।
प्रेम और वासना का भी निकट संबंध है ,
प्रेम और वासना के कुछ विशिष्ट लक्षण ... ये इतने विपरीत हैं फिर भी इतने समीप है ,
वासना तनाव लाती है, प्रेम विश्राम लाता है।
वासना अंग पर केंद्रित होती है, प्रेम पूरे पर।
वासना हिंसा लाती है, प्रेम बलिदान लाता है।
वासना में हम झपटना / कब्जा करना चाहते हैं , प्रेम में तुम देना / समर्पण करना चाहते हैं ।
वासना कहती है, 'जो मैं चाहूं, वही तुम्हें मिले' ... प्रेम कहता है, 'जो तुम चाहो, वह तुम्हें मिले।'
वासना ज्वर और कुंठा लाती है ... प्रेम उत्कंठा और मीठा दर्द पैदा करता है।
वासना जकड़ती है, विनाश करती है, प्रेम मुक्त करता है , हमे स्वतंत्र करता है।
वासना में प्रयत्न है, प्रेम प्रयत्नहीन है।
वासना में मांग है, प्रेम में अधिकार है।
वासना हमे दुविधा देती है, उलझाती है ... प्रेम में हम केंद्रित और विस्तृत होते हो।
वासना केवल नीरस और अंधकारमय है .... प्रेम के अनेक रूप और रंग हैं।
काम-वासना में बाधा होने पर व्यक्ति क्रोधित होते हैं और घृणा करने लगते हैं।
प्रेम में विनोद है, सरलता है और वासना में कपट है, छलयुक्ति है।
आज संसार में फैली घृणा प्रेम के कारण नहीं, बल्कि वासना के कारण है।
जीवन में हम कई भूमिकाएं निभाते हैं। यदि सभी भूमिकाएं आपस में मिल जाती हैं तो जीवन अंधकारमय हो जाता है,
ज्ञानी प्रत्येक भूमिका को स्पष्टता से अलग-अलग निभाते हैं, जैसे कि इंद्रधनुष में सभी रंग आसपास में प्रदर्शित होकर इंद्रधनुष बनाते हैं।
!! ॐ नमः शिवाय !!
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