शिक्षाशास्त्र से भी मेरी दृष्टि भिन्न और विरोधी हो सकती है। मैं न तो शिक्षाशास्त्री ही हूं और न समाजशास्त्री ही। किंतु यह सौभाग्य की बात है। क्योंकि जो जितना अधिक शास्त्र को जानते हैं, उनके लिए जीवन को जानना उतना ही कठिन हो जाता है। शास्त्र सदा ही सत्य के जानने में बाधा बन जाते हैं। शास्त्र से भरे हुए चित्त में चिंतन समाप्त हो जाता है। चिंतन के लिए तो निर्भार और पक्षपात मुक्त चित्त चाहिए न! शास्त्र और सिद्धांत पक्ष पैदा करते हैं। और तब जीवन और उसकी समस्याओं के प्रति निष्पक्ष और निर्दोष दृष्टि नहीं रह जाती है। शास्त्र जिसके लिए महत्वपूर्ण हैं, उसके समक्ष समाधान समस्याओं से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं। वह समस्याओं के अनुरूप समाधान नहीं, वरन समाधानों के अनुरूप ही समस्याओं को देखने लगता है! इससे जो मूढ़तापूर्ण स्थिति पैदा होती है, उससे समाधानों से समस्याओं का अंत नहीं, अपितु और बढ़ती होती है। मनुष्य का पूरा इतिहास ही इसका प्रमाण है। मनुष्य का विचार और आचार इतना भिन्न, स्व-विरोधी क्यों है? शास्त्रों और सिद्धांतों के आधार पर जीवन पर थोपे गए समाधानों का ही यह परिणाम है। समाधान समस्याओं से नहीं जन्में हैं, उन्हें समस्याओं के ऊपर थोपा गया है। समाधान ऊपर हैं, समस्याएं भीतर हैं। समाधान बुद्धि में हैं, समस्याएं जीवन में हैं। और यह अंतर्द्वंद्व आत्मघाती हो गया है। सभ्यता के भीतर इस भांति जो विक्षिप्तता चलती रही है वह अब विस्फोट की स्थिति में आ गई है। उसके विस्फोट की संभावना से पूरी मनुष्यता भयाक"ांत है। लेकिन मात्र भयभीत होने से क्या होगा? भय की नहीं, वरन साहसपूर्वक पूरी स्थिति को जानने और पहचानने की जरूरत है। मैं शास्त्रों को बीच में नहीं लूंगा, क्योंकि मैं समाधानों से अंधा नहीं होना चाहता। मैं तो आपसे कुछ ऐसी बातें करना चाहता हूं जो कि समस्याओं को सीधा देखने से पैदा होती हैं। क्या यह संभव नहीं है कि हम जीवन को सीधा देख सकें? क्या यह संभव नहीं है कि हम जीवन को वैसा देखें जैसे कि पहले आदमी ने उसे देखा होगा? क्या हमारा मन उतनी सरलता और स्वतंत्रता और सहजता से जीवन को नहीं देख सकता है? शिक्षा के समक्ष इसे मैं सबसे अहम समस्या मानता हूं। शिक्षा व्यक्ति के चित्त को इतना बोझिल, जटिल और बूढ़ा कर दे कि उसका जीवन से सीधा संपर्क छिन्न-भिन्न हो जाए तो वह शुभ नहीं है। बोझिल और बूढ़ा चित्त जीवन के ज्ञान, आनंद और सौंदर्य, सभी से वंचित रह जाता है। ज्ञान, आनंद और सौंदर्य की अनुभूति के लिए तो युवा चित्त चाहिए। शरीर तो बूढ़ा होने को आबद्ध है, लेकिन चित्त नहीं। चित्त तो सदा युवा रह सकता है। मृत्यु के अंतिम क्षण तक चित्त युवा रह सकता है। और ऐसा चित्त ही जीवन और मृत्यु के रहस्यों को जान पाता है। ऐसा चित्त ही धार्मिक चित्त है। |
Hirendra Pratap Singh Research for Mantra Tantra Yantra Vigyan (Science), YOGa. Darshan, kundali Jagran, Mahavidha Sadhan Etc
Tuesday, April 27, 2010
What life is not possible to see straight?
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