Pages

Tuesday, December 21, 2010

Devotion is experience OF BackLife

जन्मों का अनुभव है भक्ति

      
भक्त का हृदय एक प्रार्थना है, एक अभीप्सा है-परमात्मा के द्वार पर एक दस्तक है। भक्त के प्राणों में एक ही अभिलाषा है कि जो छिपा है वह प्रगट हो जाए, कि घूंघट उठे, कि वह परम प्रेमी या परम प्रेयसी मिले। इससे कम पर उसकी तृप्ति नहीं। उसे कुछ और चाहिए नहीं। और सब चाहकर देख भी लिया। चाह-चाह कर सब देख लिया। सब चाहें व्यर्थ पाई। दौडाया बहुत चाहों ने, पहुंचाया कहीं भी नहीं।
जन्मों-जन्मों की मृगतृष्णाओं के अनुभव के बाद कोई भक्त होता है। भक्ति अनंत-अनंत जीवन की यात्राओं के बाद खिला फूल है। भक्ति चेतना की चरम अभिव्यक्ति है। भक्ति तो केवल उन्हीं को उपलब्ध होती है जो बडभागी हैं। नहीं तो हम हर बार फिर उन्हीं चक्करों में पड जाते हैं। बार-बार फिर कोल्हू के बैल की तरह चलने लगते हैं। मनुष्य के जीवन में अगर कोई सर्वाधिक अविश्वसनीय बात है तो वह यह है कि मनुष्य अनुभव से कुछ सीखता ही नहीं। उन्हीं-उन्हीं भूलों को दोहराता है। भूलें भी नई करे तो भी ठीक, बस पुरानी ही भूलों को दोहराता है। रोज-रोज वही, जन्म-जन्म वही। भक्ति का उदय तब होता है, जब हम जीवन से कुछ अनुभव लेते हैं, कुछ निचोड।
निचोड क्या है जीवन का? कि कुछ भी पा लो, कुछ भी पाया नहीं जाता। कितना ही इकट्ठा कर लो और तुम भीतर दरिद्र के दरिद्र ही रहे आते हो। धन तुम्हें धनी नहीं बनाता-जब तक कि वह परम धनी न मिल जाए, वह मालिक न मिले। धन तुम्हें और भीतर निर्धन कर जाता है। धन की तुलना में भीतर की निर्धनता और खलने लगती है।
मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा, सब धोखे हैं, आत्मवंचनाएं हैं। कितना ही छिपाओ अपने भावों को-अपने घावों के ऊपर गुलाब के फूल रख दो, इससे घाव मिटते नहीं। भूल भले जाएं क्षण-भर को, भरते नहीं। दूसरों को भले धोखा हो जाए, खुद को कैसे धोखा दोगे? तुम तो जानते ही हो, जानते ही रहोगे कि भीतर घाव है, ऊपर गुलाब का फूल रखकर छिपाया है। सारे जगत को भी धोखा देना संभव है, लेकिन स्वयं को धोखा देना संभव नहीं है।
जिस दिन यह स्थिति प्रगाढ होकर प्रगट होती है, उस दिन भक्त का जन्म होता है। और भक्त की यात्रा विरह से शुरू होती है। क्योंकि भक्त के भीतर एक ही प्यास उठती है अहर्निश - कैसे परमात्मा मिले? कहां खोजें उसे? उसका कोई पता और ठिकाना भी तो नहीं। किससे पूछें? हजारों हैं उत्तर देने वाले, लेकिन उनकी आंखों में उत्तर नहीं। हजारों हैं शास्त्र लिखने वाले, लेकिन उनके प्राणों में सुगंध नहीं। हजारों हैं जो मंदिरों में, मसजिदों में, गुरुद्वारों में प्रार्थनाएं कर रहे हैं, लेकिन उनकी प्रार्थनाओं में आंसुओं का गीलापन नहीं है। हृदय का रंग नहीं है-रूखी हैं, सूखी हैं, मरुस्थल-सी हैं। प्रार्थना कहीं मरुस्थल होती है? प्रार्थना तो मरूद्यान है, उसमें तो बहुत फूल खिलते हैं, बहुत सुवास उठती है।
हां, बाहर की आरती तो लोगों ने सजा ली, पर भीतर का दीया बुझा है। बाहर तो धूप-दीप का आयोजन कर लिया है और भीतर सब शून्य है, रिक्त है। भक्त को यह पीडा खलती है। भक्त झूठी भक्ति से मन को बहला नहीं सकता। ये खिलौने अब उसके काम के न रहे। अब तो असली चाहिए। अब कोई नकली चीज उसे न भा सकती है, न भरमा सकती है, तो गहन विरह की आग जलनी शुरू होती है। प्यास उठती है और चारों तरफ झूठे पानी के झरने हैं। जितनी झूठे पानी के झरने की पहचान होती है, उतनी ही प्यास और प्रगाढ होती है। एक घडी ऐसी आती है, जब भक्त धू-धू कर जलती हुई एक प्यास ही रह जाता है। उस प्यास के संबंध में ही ये प्यारे वचन दरिया ने कहे हैं।
जाके उर उपजी नहिं भाई।
सो क्या जाने पीर पराई।।
यह विरह ऐसा है कि जिस हृदय में उठा हो वही पहचान सकेगा। यह पीर ऐसी है। यह अनूठी पीडा है। यह साधारण पीडा नहीं है। साधारण पीडा से तो तुम परिचित हो। कोई है जिसे धन की प्यास है। और कोई है जिसे पद की प्यास है। नहीं मिलता तो पीडा भी होती है। बाहर की पीडाओं से तो तुम परिचित हो, लेकिन भीतर की पीडा को तो तुमने कभी उघाडा नहीं। तुमने भीतर तो कभी आंख डालकर देखा ही नहीं कि वहां भी एक पीडा का निवास है। और ऐसी पीडा का कि जो पीडा भी है और साथ ही बडी मधुर भी। पीडा है, क्योंकि सारा संसार व्यर्थ मालूम होता है। और मधुर, क्योंकि पहली बार उसी पीडा में परमात्मा की धुन बजने लगती है। पीडा.. जैसे छाती में किसी ने छुरा भोंक दिया हो। ऐसा बिंधा रह जाता है भक्त।
फिर भी यह पीडा सौभाग्य है। क्योंकि इसी पीडा के पार उसका द्वार खुलता है, उसके मंदिर के पट खुलते हैं। यह पीडा सूली भी है, सिंहासन भी। इसलिए पीडा बडी रहस्यमय है। भक्त रोता भी है, पर उसके आंसू और तुम्हारे आंसू एक ही जैसे नहीं होते। हां, वैज्ञानिक के पास ले जाओगे परीक्षण करवाने, तो वह तो कहेगा एक ही जैसे हैं। दोनों खारे हैं-इतना नमक है, इतना जल, इतना-इतना क्या-क्या है, सब विश्लेषण करके बता देगा। भक्त के आंसुओं में और साधारण दुख के आंसुओं में उसे भेद दिखाई न पडेगा। इसलिए वैज्ञानिक परम मूल्यों के संबंध में अंधा है। तुम तो जानते हो आंसुओं आंसुओं का भेद। कभी तुम आनंद से भी रोए हो। कभी दुख से भी। कभी क्रोध से भी रोए हो, कभी मस्ती से भी। तुम्हें भेद पता है, लेकिन भेद आंतरिक है। यांत्रिक नहीं है, बाह्य नहीं है। इसलिए बाहर की किसी विधि की पकड में नहीं आता। फिर भक्त के आंसू तो परम अनुभूति हैं, जो हृदय के पोर-पोर से रिसती है। उसमें पीडा है बहुत, क्योंकि परमात्मा को पाने की अभीप्सा जगी है। और उसमें आनंद भी है बहुत, क्योंकि परमात्मा को पाने की अभीप्सा जगी है। परमात्मा को पाने की आकांक्षा का जग जाना ही इतना बडा सौभाग्य है कि भक्त नाचता है। केवल थोडे-से सौभाग्यशालियों को यह पीडा मिलती है। यह अभिशाप नहीं, वरदान है। इसे वे ही पहचान सकेंगे, जिनने थोडा स्वाद लिया है।
जाके उर उपजी नहिं भाई। और यह पीडा मस्तिष्क में पैदा नहीं होती। यह कोई मस्तिष्क की खुजलाहट नहीं है। मस्तिष्क की खुजलाहट से दर्शनशास्त्रों का जन्म होता है। यह पीडा तो हृदय में पैदा होती है। इस पीडा का विचार से कोई नाता नहीं है। यह पीडा तो भाव की है। इस पीडा को कहा भी नहीं जा सकता। विचार व्यक्त हो सकते हैं, भाव अव्यक्त ही रहते हैं। विचारों को दूसरों से निवेदन किया जा सकता है और निवेदन करके आदमी थोडा हलका हो जाता है। किसी से कह लो। दो बात कर लो। मन का बोझ उतर जाता है। पर यह पीडा ऐसी है कि किसी से कह भी नहीं सकते। कौन समझेगा? लोग पागल समझेंगे तुम्हें।
कल एक जर्मन महिला ने संन्यास लिया। एक शब्द न बोल सकी। शब्द बोलने चाहे तो हंसी, रोई, हाथ उठे, मुद्राएं बनीं। खुद चौंकी भी बहुत, क्योंकि शायद पागल समझी जाए। रोती है, डोलती है। हाथ उठते हैं, कुछ कहना चाहते हैं। ओंठ खुलते हैं, कुछ बोलना चाहते हैं। मगर विचार हो तो कह दो, भाव हो तो कैसे कहो? भाव तो केवल वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने उस पीडा का थोडा अनुभव किया हो। इसलिए सत्संग का मूल्य है। सत्संग का अर्थ है : जहां तुम जैसे और दीवाने भी मिलते हैं। सत्संग का अर्थ है : जहां चार दीवाने मिलते हैं, जो एक -दूसरे का भाव समझेंगे, जो एक-दूसरे के भाव के प्रति सहानुभूति, सहानुभूति ही नहीं समानुभूति भी अनुभव करेंगे। जहां एक के आंसू दूसरे के आंसुओं को छेड देंगे और जहां एक का गीत, दूसरे के भीतर गीत की गूंज बन जाएगा और जहां एक नाच उठेगा तो शेष सब भी पुलक से भर जाएंगे, जहां एक ऊर्जा उन सबको घेर लेगी।
सत्संग अनूठी बात है। सत्संग का अर्थ है जहां पियक्कड मिल बैठे हैं। अब जिन्होंने कभी पी ही नहीं है शराब, वे तो कैसे समझेंगे? और बाहर की शराब तो कहीं भी मिल जाती है। भीतर की शराब तो कभी-कभी, बहुत मुश्किल से मिलती है। क्योंकि भीतर की शराब जहां मिल सके, ऐसी मधुशालाएं ही कभी-कभी सैकडों सालों के बाद निर्मित होती हैं। किसी बुद्ध के पास, किसी नानक के पास, किसी दरिया के पास, किसी फरीद के पास, कभी सत्संग का जन्म होता है। सत्संग किसी जाग्रत पुरुष की हवा है। सत्संग किसी जाग्रत पुरुष के पास तरंगायित भाव की दशा है। सत्संग किसी के जले हुए दीये की रोशनी है। उस रोशनी में जब चार दीवाने बैठ जाते हैं, हृदय से हृदय जुडता है और हृदय से हृदय तरंगित होता है, तभी जाना जा सकता है। दरिया ठीक कहते हैं। तुम जरा भी समझ लो इस पीर को, तो तुम्हारे जीवन में भी अमृत की वर्षा हो जाए। अमी झरत, बिगसत कंवल। झरने लगे अमृत और खिलने लगे कमल आत्मा के। मगर इस पीडा के बिना कुछ भी नहीं है। यह प्रसव पीडा है।